SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथमखण्ड-का० १-स्मृतिप्रमोषः 121 तथा परतःप्रामाण्यमपि मिथ्यात्वाशंकायां कस्यचिज्ज्ञानस्य बाधकाभावान्वेषणाद् वक्तव्यम् , तदन्वेषणे च सापेक्षत्वं प्रमाणानामपरिहार्य विपरीतख्यातौ / ततो न कस्यचिद् ज्ञानस्य मिथ्यात्वम्, तदभावान्नान्यदेशकालाकारार्थप्रतिभासः, नापि बाधकाभावापेक्षा। भ्रान्ताभिमतेषु तु तथाव्यपदेशः स्मृतिप्रमोषात् / यत्र तु स्मृतित्वेऽपि 'स्मरामि' इति रूपाऽप्रवेदनं कुतश्चित कारणात् तत्र स्मृतिप्रमोषोऽभिधीयते। एवं परतः प्रामाण्यस्वीकार के भय से आपने भ्रम स्थल में विपरीतख्याति न मानकर स्मृति का प्रमोष यानी स्मृतिअंश में गुप्तता मानी है। यदि विपरीतख्याति मानें तो शून्यवाद की आपत्ति और परतः प्रामाण्य की आपत्ति निर्बाध होने वाली है। वह इस प्रकार- विपरीतख्याति में अन्य देश और अन्य काल में अवस्थित रजतादि वस्तु शुक्ति देश में उस काल में न होते हुये भी दिखाई देती है यह माना जाता है। अब यह सोचना चाहिये कि भासमान वस्तु का 'उस देश-काल में असत्त्व' माने या 'अत्यन्त असत्त्व' माने, चाहे जो कुछ माने, फिर भी असत्रूप से उस वस्तु के प्रतिभास में कोई भेद नहीं होता / अगर ज्ञान अन्यदेशवर्ती वस्तु के आकार को किसी भ्रान्तिनिमित्त से उस देश में दिखाता है तो अविद्यारूप भ्रान्तिनिमित्त से अत्यन्तासत् अर्थ को भी क्यों नहीं दिखा सकता? ! इस प्रकार यदि असत् ही पदार्थ का भान अविद्या से माना जाय तो शून्यवाद की आपत्ति से छूटकारा कैसे होगा ? क्योंकि भासमान समस्त वस्तु अत्यन्त असत् होने पर भी अविद्या से उसका प्रतिभास हो सकता है। . [ज्ञानमिथ्यात्वपक्ष में परतः प्रामाण्यापत्ति ] परतः प्रामाण्य की आपत्ति भी विपरीतख्याति में संभव है / बाधक उपस्थित होने पर ज्ञान को भ्रमात्मक यानी विपरीत ख्यातिरूप माना जाता है। मान लो कि किसी ज्ञान में वह मिथ्या होने की शंका का उदय हुआ। अब इस के निराकरण के लिये बाधकाभाव का अन्वेषण करना होगा, अर्थात् उस ज्ञान के प्रामाण्य का समर्थन बाधकाभाव प्रदर्शन से करना होगा तो परत: प्रामाण्य भी कहना होगा। इस प्रकार विपरीतख्याति में बाधकाभाव के अन्वेषण में प्रमाणों की सापेक्षता अनिवार्य हो जायगी। इससे बचने के लिये मीमांसको ने यह माना है कि कोई भी ज्ञान मिथ्या नहीं होता / मिथ्या न होने से अन्यदेशकालवर्ती पदार्थ के आकार का प्रतिभास भी नहीं मानना पड़ेगा, इसलिये विपरीतख्याति और शून्यवाद की आपत्ति नहीं होगी। तथा बाधकाभाव की अपेक्षा न रहेगी, तब परतः प्रामाण्य स्वीकार की आपत्ति भी नहीं होगी। जिस ज्ञान को भ्रान्त माना जाता है वह वस्तुतः भ्रम न होने पर भी स्मृति अंश का प्रमोष होने से उसे भ्रान्त कहा जाता है वह इस प्रकार-'इदं रजतम्' यह एक शुक्तिस्थल में रजतावभासी प्रतीति है [ जिस को भ्रम माना जाता है ] इस प्रतीति में 'इदं' अंश से सामने पडै हुये शुक्ति आदि वस्तु के प्रतिभास का उल्लेख होता है, 'रजतम्' इस अंश से पूर्वानुभूत रजत के साम्य आदि किसी निमित्त से होने वाले स्मरण का अर्थात् उस स्मृति में भासमान रजत का उल्लेख होता है / यद्यपि उसका स्मृतिविषयत्व रूप से उल्लेख नहीं होता, अर्थात् रजत स्मरण का स्मरणरूप से भान उसमें नहीं होता, उसी को स्मृतिप्रमोष कहा जाता है / तात्पर्य यह है कि जहाँ "मैं याद करता हूं" इस प्रकार स्मरण की स्पष्ट प्रतीति होती है वहाँ स्मृति का अप्रमोष है यानी स्मृति अंश गुप्त नहीं रहता / किंतु जहाँ “मैं
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy