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________________ प्रथमखण्ड-का०-१प्रामाण्यवाद प्रेरगाजनिता तु बुद्धिरपौरुषेयत्वेन दोषरहितात् प्रेरणालक्षणाच्छन्दादुपजायमाना लिंगाऽऽप्तो. क्ताक्षबुद्धिवत् प्रमाणं सर्वत्र स्वतः / तदुक्तम्-- चोदनाजनिता बुद्धिः प्रमाणं दोषजितैः / कारणैर्जन्यमानत्वाल्लिगाऽऽप्तोक्ताऽक्षबुद्धिवत् // [श्लो० वा० सू० 2 श्लो० 148] इति / तस्मात् 'स्वतः प्रामाण्यम् , अप्रामाण्यं परत इति व्यवस्थितम् / ' प्रतः सर्वप्रमाणानां स्वतः सिद्धत्वाद् युक्तमुक्तम्-'स्वतः सिद्धं शासनं नातः प्रकरणात प्रामाण्येन प्रतिष्ठाप्यम्' [ पृ० 450 6 ] इदं त्वयुक्तम्- 'जिनानाम्' इति / जिनानामसत्त्वेन शासनस्य तत्कृतत्वानुपपत्तेः, उपपत्तावपि परतः प्रामाण्यस्य निषिद्धत्वात् / इति / यह केवल शाप नहीं है किन्तु हकीकत है, क्योंकि जो विषय शंका करने योग्य नहीं है, उस विषय में भी जो लोग शंका करते हैं, वे समस्त विषयों में इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट के त्याग के लिये प्रवृत्ति और निवत्तिरूप व्यवहार नहीं कर सकते हैं। इस कारण इस प्रकार के लोगों का नाश युक्तियुक्त है / अशंकनीय विषयों में शंका न करने का कारण यह है कि स्वमतिकल्पित निमित्तों से की जाने वाली शंका तो सभी पदार्थों में हो सकती है / [प्रेरणाजनित बुद्धि का स्वतः प्रामाण्य ] जो बुद्धि वैदिक विधिवाक्य से उत्पन्न होती है वह विधिवाक्य पुरुषरचित नहीं होने से स्वतः प्रमाण है। जैसे कि हेतुजन्य अनुमिति, आप्त पुरुष के वचन से जन्य शब्दबोध और इन्द्रियों से जन्य प्रत्यक्ष ज्ञान अपने अपने विषयों में स्वतः प्रमाणभूत होते हैं / उसका प्रामाण्य निश्चित करने के लिये किसी अन्य कारण की अपेक्षा नहीं रहती / मीमांसा श्लोक वात्तिक में कहा गया है कि जो बुद्धि विधिवाक्य से उत्पन्न होती है वह दोषरहित कारणों से उत्पन्न होने के कारण प्रमाण है, जैसे कि हेतु से उत्पन्न, आप्तवचन से उत्पन्न और इन्द्रिय से उत्पन्न ज्ञान / दोषरहित धूम आदि हेतु से होने वाला अग्नि आदि का अनुमिति ज्ञान प्रमाण होता है / किसी आप्तपुरुष के वचन को सुन कर जो ज्ञान होता है वह भी दोषरहित वचन से उत्पन्न हुआ है इसलिये प्रमाण होता है / दोषरहित चक्षु आदि से जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह भी प्रमाण होता है / इन ज्ञानों के समान निर्दोष विधिवाक्य से उत्पन्न ज्ञान भी प्रमाण है। विधिवाक्य किसी पुरुष से उत्पन्न नहीं, किन्तु अपौरुषेय हैं नित्य हैं, इसलिये पुरुष के साथ संबंध रखने वाले दोषों से युक्त पुरुष से उत्पन्न नहीं है। अतः विधिवाक्यजन्य बोध अप्रामाण्य की संभावना से रहित है / कारणों के निर्दोष होने से जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह प्रमाण होता है। विधि वाक्य भी एक निर्दोष कार है इस लिये उसके द्वारा उत्पन्न होने वाला ज्ञान भी प्रमाण है। [शासन स्वतः सिद्ध होने से जिनस्थापित नहीं हो सकता-पूर्वपक्ष समाप्त ] इसलिये सिद्ध हुआ कि प्रामाण्य स्वतः होता है और अप्रामाण्य पर की अपेक्षा से होता है, इस रीति से समस्त प्रमाणों का प्रामाण्य स्वतः सिद्ध है, इसलिये उचित ही कहा गया है कि-'शासन स्वतः सिद्ध है, इस प्रकरण के द्वारा उसकी प्रामाण्यरूप से प्रतिष्ठा करने की आवश्यकता नहीं है / (इदं त्वयुक्तम् ....) शासन स्वतः प्रमाण है यह प्रतिपादन युक्तियुक्त होने पर भी आपने जो
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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