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________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः 166 मांसकैः / अत एव तदभिप्रायप्रकाशनपरं भगवतो जैमिनेः सूत्रम्-"सतसम्प्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां बुद्धिजन्म तत् प्रत्यक्षम् [ जैमिनीसूत्र 1.1.4 ] इति, यतो नानेनापि सूत्रेण स्वातन्त्र्येण प्रत्यक्षलक्षणमभ्यधायि भगवता किंतु लोकप्रसिद्धलक्षणलक्षितप्रत्यक्षानुवादेन तस्य धर्म प्रत्यनिमित्तत्वं विधीयते / न चैतदत्रापि वक्तव्यम्-"कतरस्य प्रत्यक्षस्य धर्म प्रत्यनिमित्तत्वं विधीयते ? अस्मदादिप्रत्यक्षस्य-सर्वज्ञप्रत्यक्षस्य वा ? अस्मदादिप्रत्यक्षस्य तदनिमित्तत्वप्रतिपादने सिद्धसाधनम् / सर्वज्ञप्रत्यक्षस्य भवन्मतेनाऽप्रसिद्धत्वाच्छशविषाणस्येव कथं तं प्रत्यनिमित्तताविधिः ? अथापि स्यात्-परेण तस्याभ्युपगतत्वात् तं प्रत्यानिमित्तत्वं तत्प्रसिद्ध्यैवोच्यते-तदयुक्तम् , परीक्षापूर्वकत्वेनाभ्युपगमस्य स्थितत्वात् , तत्पूर्वकश्चेत् परस्याभ्युपगमस्तदा भवतोऽपि तस्य सद्भावः, परीक्षायाः प्रमाणरूपत्वात् , प्रमाणसिद्धं च न परस्यैव सिद्धम् , प्रमाणसिद्धस्य सर्वैरेवाभ्युपगमनीयत्वात् / अथ प्रमाणव्यतिरेकेण परेण सर्वज्ञप्रत्यक्षमभ्युपगतं तदाऽसौ प्रमाणाभावादेव नाभ्युपगमो युक्तः। न च प्रमाणाभ्युपगतस्यास्मदादिप्रत्यक्षविलक्षणस्य सर्ववित्प्रत्यक्षस्य तं प्रत्यानिमित्तत्वं विधातुयुक्तम् , यतोऽस्मदादिप्रत्यक्षविलक्षणत्वं सर्ववित्प्रत्यक्षस्य धर्मादिग्राहकत्वेनैव, तच्चेत् प्रमाणतोऽभ्युपगतम कथं तस्य तं प्रत्यनिमित्तत्वमुपपघेत, तद्ग्राहकप्रमाणबाधितत्वात् ? किं च, अयं परस्परविरुद्धोऽपि वाक्यार्थः स्यात्-'प्रमाणतो धर्मादिग्राहकं सर्ववित्प्रत्यक्षं यत् प्रसिद्धं तद् धर्मादिग्राहकं न भवतीति / " -- जो दोष दिखायें हैं उनसे सदोष होने के कारण अतीन्द्रिय पदार्थों में स्वतन्त्र रूप से प्रत्यक्षादि प्रमाण की प्रवृत्ति का संभव नहीं है / किन्तु सर्वज्ञविरोधीयों का अभिप्राय यह है कि, सत्-असत् आदि की मीमांसा करने में निपुण, अत एव सार्थक नाम धारण करने वाले मीमांसक विद्वानों ने जो सर्वज्ञ का विरोध करने वाला युक्तिकदम्बक प्रस्तुत किया है वह सब सर्वज्ञ के अभाव का स्वतन्त्ररूप से स करने के लिये नहीं किन्तु सर्वज्ञ के साधन में आने वाली बाधायें ही प्रसंगसाधन के रूप में प्रस्तुत की गयी है / इसी अभिप्राय के यानी प्रसंगसाधनरूप अभिप्राय के प्रकाशन में तत्पर भगवान् जैमिनी का यह सूत्र भी है 'सत्संप्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां बुद्धिजन्म प्रत्यक्षम्'-जिसका अर्थ है पुरुष की इन्द्रियों का सत्पदार्थ के साथ सम्पर्क होने पर जिस बुद्धि का जन्म होता है उसे प्रत्यक्ष कहा जाता है / 'यहाँ उक्त सूत्र से स्वतन्त्ररूप से प्रत्यक्ष के लक्षण निर्माण में भगवान् सूत्रकार का तात्पर्य नहीं है किन्तु लोगों में जो प्रत्यक्ष का लक्षण प्रचलित है उसका अनुवाद मात्र किया गया है। इस प्रकार लोकप्रचलित प्रत्यक्षलक्षण का अनुवाद करके सूत्रकार को तो यही विधान करना है कि उक्त प्रकार के लक्षण वाला प्रत्यक्ष धर्मविषयक तत्त्वज्ञान में निमित्तभूत नहीं हो सकता / इसी आशय से उक्त सूत्र के अ में कहा है 'अनिमित्तं विद्यमानोपलम्भनत्वात्'-अर्थात् प्रत्यक्ष तो विद्यमान वस्तु का ही उपलम्भ . करने वाला होने से धर्मज्ञान का वह निमित्त नहीं हो सकता, क्योंकि धर्म के तत्त्वज्ञान काल में धर्म भावि में निष्पाद्य होने से स्वयं अविद्यमान होता है इसलिये उसके प्रत्यक्ष का सम्भव नहीं है / [ सर्वज्ञवादी की ओर से अनिमित्तत्व का प्रतिक्षेप ] नास्तिक यहाँ सर्वज्ञवादी की ओर से पुनः प्रस्तुत एक दीर्घ निवेदन को अनुचित दिखाता है सर्वज्ञवादी जैमिनी सूत्रकार के उक्त अभिप्राय ऊपर यह पूछना चाहते हैं कि-किस प्रत्यक्ष को आप धर्मज्ञान का अनिमित्त दिखा रहे हो ? हम आदि के प्रत्यक्ष को या सर्वज्ञ के प्रत्यक्ष को ? हमारे प्रत्यक्ष को धर्मज्ञान का अनिमित्त कहा जाय तो इसमें हमारी इष्टसिद्धि होने से सिद्धसाधन दोष
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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