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________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वर० उत्तरपक्षः 485 यथा (यच्च) 'अनुपलभ्यमानकरी केषु स्थावरेषु कर्तुरनुपलम्भः शरीराद्यभावात् न त्वसस्वात्' इत्यादि, तदपि प्रतिक्षिप्तम् उक्तोत्तरत्वात् / यदप्युक्तम् 'चैतन्यमात्रेणोपादानाद्यधिष्ठानाद, कथं प्रत्यक्षव्यापृतिः' ? तदसंगतम् , तथोपादानाद्यधिष्ठायकत्वस्य क्वचिदप्यदर्शनात् अदृष्टस्यापि तस्य कल्पने बुद्धचनधिष्ठितस्यापि भूरुहाधुपादानस्य तत्कर्तृत्वं किं न कल्प्यतेऽदर्शनाऽविशेषात ? * यच्चाभ्यधायि 'कार्यस्य शरीरेण सह व्यभिचारो दृश्यते, स्वशरीरावयवानां हि शरीरान्तरमन्तरेणापि प्रवृत्ति-निवृत्ती केवलो विदधाति' इति, तदप्ययुक्तम् , यतः शरीरसम्बन्धव्यतिरेकेण चेतस्य स्वशरीरावयवेष्वन्यत्र वा कार्यनिर्वतकत्वं न दृष्टमित्यन्यत्रापि तत तस्य न कल्पनीयमित्येतावमात्रमेव प्रतिपाद्यते न त्वपरशरीरसम्बन्धपरिकल्पनमत्रोपयोगि। यदि च शरीररहितस्यापि तस्य भूरुहादिकार्ये व्यापारः परिकल्प्यते तहि मुक्तस्यापि तदन्तरेण ज्ञानसमवायिकारणत्वपरिकल्पनं किं न क्रियते ? तथाऽभ्युपगमे न ज्ञान-सुखादिगुणरहितात्मस्वरूपावस्थितिमुक्तिः संभवतीति तदर्थमीश्वराऽऽराधनमसंगतमासज्येत / आपत्ति होने से वृक्षादिगत कार्यत्व केवल अपने कारणों का ही अनुमान करा सकता है ( कर्ता का नहीं ) यह बात आपको कितनी बार कह चुके हैं। [ केवल चैतन्यमात्र से वस्तु का अधिष्ठान असंगत ] यह जो कहा था-कर्ता की अनुपलब्धि वाले स्थावरादि में कर्ता उपलब्ध न होने का कारण शरीरादि का अभाव है किन्तु कर्ता का असत्त्व नहीं है / इसका तो उत्तर हो गया है अतः वह निरस्त हो गया / और भी जो कहा था-वह केवल अपने चैतन्य से ही उपादानादि को अधिष्ठित कर देता है (अतः शरीर की जरूर नहीं रहती) तो फिर (शरीर के अभाव में) प्रत्यक्ष का चलन वहाँ कैसे शक्य है ?....यह भो असंगत है, क्योंकि केवल चैतन्यमात्र से ही कोई किसी को अधिष्ठित करता हुआ नहीं दिखाई देता / न दिखायी देने पर भी यदि उसकी कल्पना करते हैं तब वृक्षादि उपादानकारणों में बुद्धि (चैतन्य) के अधिष्ठान विना ही ईश्वर को वृक्षादि का कर्ता क्यों नहीं मान लेते जब कि 'न दिखायी देना' यह बात तो दोनों में समान है ? [ कार्य शरीर का द्रोही नहीं है ] यह जो कहा है-कार्य का शरीर के साथ तो व्यभिचार दिखता है, उदा० अन्य शरीर के विना भी अपने शरीर के अंगों का हलन-चलन केवल चेतन करता ही है / यह भो अयुक्त है / कारण, हमारे प्रतिपादन का आशय इतना ही है कि शरीरसम्बन्ध के विना आत्मा अपने शरीरावयवों का या दूसरी चीज वस्तुओं का, किसी का भी हलन चलनादि कार्य करता हो यह देखने में नहीं आता, अतः अन्यत्र ईश्वर में भी शरीरसम्बन्ध के विना यत्किचित्कार्य कर्तृत्व की कल्पना नहीं करनी चाहिये / अपने शरीर के संचालन में अन्य शरीर का योग है या नहीं यह विचार यहाँ उपयुक्त नहीं है। दूसरी बात यह है कि शरीर के विना भी ईश्वर में वृक्षादिउत्पादन का व्यापार जब मानते हो तब अशरीरी मुक्तात्मा में ज्ञानसमवायिकारणता की कल्पना क्यों नहीं करते हो ? यदि यह भी कल्प लेंगे तब तो 'ज्ञान-सुखादिगुण रिक्त हो जाने पर आत्मस्वरूपमात्र की अवस्थिति' को 'मुक्ति' कहना सम्भव नहीं हो सकेगा। फलतः वैसो मुक्ति के लिये ईश्वराराधना भी असंगत हो जायेगी।
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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