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________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः 197 अत्रापि वक्तव्यम्-कि सकलदेशकालव्यवस्थितपुरुषाधारं किंचिज्जत्वमभ्युपगम्यते, आहोस्वित्कतिपयपुरुषव्यक्तिसमाश्रितमिति? तत्र यदि समस्तदेशकालाश्रितपुरुषाधारं किंचिज्जत्वं तद्विषयं ज्ञानं तदन्यज्ञान, तत् सर्वज्ञाभावप्रसाधकम् , तदयुक्तम् ,-सकलदेश-कालव्यवस्थितपुरुषपरिषत्साक्षात्करणव्यतिरेकेण तदावारस्य किचिज्जत्वस्य विषयोकर्तमशक्तेन तद्विषयस्य तदन्यज्ञानस्य सर्वज्ञाभावावगमनिमित्तत्व युक्तम् , सर्वदेशकालव्यवस्थिताशेषपुरुषसाक्षात्करणे च स एव सर्वदर्शी इति न तदभावाभ्युपगमः श्रेयान् / - अथ कतिपयपुरुषव्यक्तिव्यवस्थितं किंचिज्जत्वं तदन्यत् , तद्विषयं ज्ञानं तदन्यज्ञानं सर्वज्ञाभावा. sऽवेदकम् तदप्ययुक्तम् , तज्ज्ञानाव तदभावावगमे कतिपयपुरुषव्यवस्थितस्यैव सर्वज्ञत्वाभावः सिध्येत् , न सर्वत्र सर्वदा सर्वपुरुषेषु, तथा च सिद्धसाधनम् , अस्माभिरपि कुत्रचित् कस्यचिद् रथ्यापुरुषादेरसर्वज्ञत्वेनाऽभ्युपगमात् / [अभावप्रमाण से सर्वज्ञ का प्रतिषेध अशक्य ] जो लोग अभावप्रमाण मानते हैं उनका वह प्रमाण वास्तव में प्रमाण ही न होने से सर्वज्ञाभावसाधक नहीं हो सकता। कदाचित् उसे प्रमाण माना जाय तो भी सर्वज्ञाभावसिद्धि के विषय में वह विकल्पसह्य नहीं है। जैसे कि-उसके ऊपर दो विकल्प है-१. आत्मा का ज्ञानरूप में अपरिणामरूप वह है या 2. अन्यवस्तु के विज्ञानस्वरूप वह है ? [ पहले, अभावप्रमाण के ये दो प्रकार होते हैं यह दिख खाया है ] यदि प्रथम विकल्प -'ज्ञानरूप में आत्मा के अपरिणाम'रूप अभावप्रमाण सर्वज्ञाभावसाधक है यह माना जाय तो वह युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि इसमें अनैकान्तिक दोष का संचार है जैसे-परकीय चेतोवृत्ति के ज्ञानरूप से अपनी आत्मा का परिणमन नहीं होता फिर भी परकीय चित्तवृत्ति को आप असत् नहीं, सत् मानते हैं / [अन्यविज्ञानस्वरूप अभावप्रमाण का असंभव ] यदि दूसरे विकल्प में सर्वज्ञाभाव साधक अभावप्रमाण अन्य विज्ञानरूप माना जाय तो यह भी संबंधरहित है, क्योंकि, सर्वज्ञत्व से अन्य किंचिज्ज्ञत्व [=अल्पज्ञत्व] और तद्विषयक ज्ञान यह अन्य विज्ञान-ऐसा आपका अभिप्राय यहाँ हो तो यहाँ हमें दो विकल्प दिखाना है कि सकलदेशवर्ती सर्वकालीन पुरुषों में आश्रित किचिज्ज्ञत्व को यहाँ आप प्रस्तुत करना चाहते हैं या कुछ अल्प पूरुष व्यक्ति में आश्रित किंचिज्ज्ञत्व को? यदि प्रथम विकल्प में, सर्वदेश-कालवर्तीपुरुष समाश्रित जो किंचिज्ज्ञत्व, तद्विषयक ज्ञान यही अन्यज्ञान अभावप्रमाणरूप हुआ और इसको आप सर्वज्ञाभाव का साधक मान रहे हो तो वह युक्तिबाह्य है क्योंकि जब तक सर्वदेश-काल में रहे हुए सकल पुरुषपर्षदा का साक्षात्कार न किया जाय तब तक उनमें रहा हआ किंचिज्ज्ञत्व अपने ज्ञान को गोचर न हो सकने से ऐसा किंचिज्ज्ञत्वविषयक ज्ञानात्मक अन्य ज्ञान सर्वज्ञाभाव के बोध का निमित्त कभी नहीं हो सकता / यदि सर्वदेशकालवर्तीपुरुष के साक्षात्कार को शक्य माना जाय तब तो ऐसा साक्षात्कार करने वाला पुरुष ही सर्वज्ञ-सर्वदर्शी सिद्ध हो जाने से उसका अभाव मान लेना श्रेयस्कर नहीं है। यदि कई एक पुरुषों में रहे हुए किंचिज्ज्ञत्व का 'अन्य' शब्द से ग्रहण किया जाय और तद्विषयकज्ञानरूप तदन्यज्ञान को सर्वज्ञाभावसाधक कहा जाय-तो यह भी युक्त नहीं है, क्योंकि इस प्रकार के तदन्यज्ञान से सर्वज्ञत्वाभाव सिद्ध होने पर भी वह सर्वज्ञाभाव कई एक पुरुषों में रहा हुआ ही
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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