________________ 72 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 न च स्वरूपे ज्ञानस्य भ्रान्तयः सम्भवन्ति, स्वरूपाभावे स्वसंवित्तरप्यभेदेनाऽभावप्रसङ्गात् / व्यतिरिक्तविषयमेव हि प्रमाणमधिकृत्योक्त-'प्रमाणमविसंवादिज्ञानं, अर्थक्रियास्थितिरविसंवादनम्'इति तथा 'प्रामाण्यं व्यवहारेणार्थक्रियालक्षणेन' इति च / तस्माद्यत्प्रमाणस्यात्मभूतमर्थक्रियालक्षणपुरुषार्थाभिधानं फलं यदर्थोऽयं प्रेक्षावतां प्रयासः तेन स्वतःसिद्धेन फलान्तरं प्रत्यनङ्गीकृतसाधनान्तरास्मतया 'प्रमारगमविसंवादिज्ञानं' इति प्रमाणलक्षणविरहिणा साधननिर्भासिज्ञानस्यानुत्क्रान्तरूपफलप्रापणशक्तिस्वरूपस्य प्रामाण्याधिगमेऽनवस्थाप्रेरणा क्रियमाणा परस्याऽप्तंगतैव लक्ष्यते। ही स्वतः सिद्ध है, वहां प्रश्न नहीं होता है कि वह कौन से दूसरे अंकुर में हेतु बन कर बीजरूप बनता है? (तदुक्तम्-स्वरूपस्य स्वतो गति....) ऐसा कहा भी है कि ‘स्वरूप में स्वतः गति होती है, उसका स्वतः ज्ञान होता है' उदाहरणार्थ, जल या अग्नि को देखा उसका तो जलत्व अग्नित्व रूप से स्वतः ही ज्ञात होता है, उसके संबन्ध में भ्रान्ति होने की कोई संभावना नहीं, शक्यता नहीं। ___ इसी प्रकार अर्थक्रियाज्ञान का स्वरूप स्वतः ही ज्ञात होता है, उसमें भ्रान्ति का कोई संभव नहीं / स्वरूप में भ्रान्ति का अर्थ यह है कि वस्त में अपना स्वरूप नहीं है, और वस्तु में स्वरूप ही न होने से वस्तु में स्वरूप जो अभेदेन अर्थात् अभिन्नतया भासमान होता है उसका अभेदेन बोध भी नहीं हो सकेगा। व्यतिरिक्तविषयमेव हि प्रमाणं....इत्यादि जो बात कही गई वह अपने से भिन्न पदार्थ विषयक प्रमाण को लेकर ही कही गई है नहीं कि अर्थ शून्य केवल विज्ञानवाद के हिसाब से, क्योंकि उसमें प्रमाणज्ञानोत्तर यथार्थता का संवाद मिलने का कोई अवसर ही नहीं है। जबकि प्रमाण के लक्षण इस प्रकार मिलते हैं, (1) प्रमाणमविसंवादिज्ञानम्-जिस ज्ञान के अनन्तर उसके विषय में विसंवाद नहीं होता है वह ज्ञान प्रमाण है / यहां अविसंवादन अर्थात् विसंवाद न होना, यह क्या चीज है ? 'अर्थक्रिया स्थितिः अविसंवादनम्' अर्थक्रिया यानी ज्ञान के विषय की प्राप्ति की स्थिति यह विसंवाद न होना है। (2) 'प्रामाण्यं व्यवहारेण अर्थक्रियालक्षणेन' यह भी लक्षण यही कहता है कि अर्थक्रिया स्वरूप व्यवहार से प्रामाण्य निश्चित होता है अर्थात् जिस ज्ञान के अनन्तर उसके विषय की प्राप्ति रूप व्यवहार होता है वह प्रमाण है, इत्यादि प्रमाण लक्षणों से सूचित होता है कि-. (तस्माद् यत् प्रमाणस्यात्मभूतम्....) इस लिए जो जो प्रमाण का अर्थक्रिया यानी इष्ट प्राप्ति र्थ नाम का फल है जो कि स्वात्मभत है और जिसके लिए प्रक्षावान पुरुषों का प्रयास होता है वह फल स्वत: सिद्ध निश्चय रूप होता है / ऐसा स्वतःसिद्ध अर्थक्रियास्वरूप फल आगे किसी और फल के प्रति उक्त युक्ति से कारणान्तर रूप (कारणरूप) होता नहीं है फिर भी वह स्वत: सिद्ध प्रमाण है यह सुनिश्चित है। इसलिए अब जो परवादी का कहना है कि 'अर्थक्रियाज्ञान रूप फल के प्रमाण का जो अविसंवादी ज्ञान वह प्रमाण है' इस लक्षण से रहित हुआ और उसके द्वारा साधन दर्शक प्रथम ज्ञान का प्रामाण्य निश्चित होना मानेंगे तो अनवस्था आएगी, क्योंकि वह अर्थक्रियाज्ञान क्यों पूर्व ज्ञान का प्रामाण्यदर्शक बनता है, इसीलिए कि अगर पूर्व ज्ञान में अनुत्क्रान्त यानी अनुल्लंघनीय स्वरूप का फल प्राप्त कराने की शक्ति न होती तो इससे संवादरूप उत्तर ज्ञानफल स्वरूप पैदा ही नहीं हो