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________________ प्रथम खण्ड-का० १-प्रामाण्यवाद 71 अपि च, अर्थक्रियाधिगतिलक्षणफलविशेषहेतुर्ज्ञानं प्रमाणमिति लक्षणे तत्फलं नैव प्रमाणलक्षणानुगतमिति कथं तस्यापि प्रामाण्यमवसीयते इति चोद्यानुपपत्तिः / यथाङ्कुरहेतुर्बीजमिति बीजलक्षणे नाकुरस्यापि बीजरूपताप्रसक्तिस्ततो न विदुषामेवं प्रश्नः-कथमंकुरे बीजरूपता निश्चीयते ? इति / यथा चाङकुरदर्शनाद् बीजस्य बीजरूपता निश्चीयते, तथात्राप्यर्थक्रियाफलदर्शनात्साधनज्ञानस्य प्रामाण्यनिश्चयः / न चार्थक्रियाज्ञानस्याप्यन्यतः प्रामाण्यनिश्चयादनवस्था, अर्थक्रियाज्ञानस्य तद्रूपतया स्वत एव सिद्धत्वात् / तदुक्तं-'स्वरूपस्य स्वतो गतिः' इति / (तच्च जाग्रज्ज्ञाने....इति चिन्तायाः....पूर्वोक्तलक्षणे....सूचयति) जब स्वाप्निक ज्ञान प्रमाणभूत ही नहीं है एवं इसमें स्वतः प्रमाण या परतः प्रमाण इस चिन्ता का कोई अवसर ही नहीं, तब जाग्रदशा के ज्ञान में उसके बाद दूसरे अर्थक्रिया दर्शन होने से यह चिन्ता खड़ी होती है कि तब 'पूर्व ज्ञान प्रमाण है या अप्नमाण ?' 'अगर प्रमाणभूत है तो स्वतः प्रमाण है या परतः प्रमाण' ऐसी चिन्ता होने पर इसका निर्णय करने के लिये हम स्वाप्निक ज्ञान की ओर क्यों देखें ? हम तो पूर्वोक्त लक्षण में जाग्रद् दशापन्न ज्ञानत्व को विशेषणविधया जोड़ देंगे। अर्थात् 'जो जाग्रद् दशापन्न अविसंवादि ज्ञान है वह प्रमाण है' ऐसा लक्षण बनाएंगे, तब इसमें स्वप्न ज्ञान को लेकर व्यभिचार बताना यह परवादी की प्रस्ताव की अनभिज्ञता सूचित करता है / तब सांव्यावहारिक जाग्रद् दशापन्न ज्ञान का प्रकरण प्रस्तुत है वहां स्वाप्निक ज्ञान को ले आना अप्रस्तुत ही है। : और भी बात है कि, 'जब अर्थक्रिया के अधिगम स्वरूप फलविशेष में हेतुभूत ज्ञान प्रमाण है' ऐसा प्रमाण का लक्षण करेंगे तब पहला ज्ञान तो बाद में होने वाले अर्थक्रिया ज्ञान का हेतु होने से प्रमाण लक्षण से लक्षित हआ, किन्तु उसका फल अर्थक्रियाज्ञान प्रमाण लक्षण से लक्षित कहाँ हुआ ? वह तो तब हो कि जब वह हेतु बनकर किसी और अर्थक्रियाज्ञानरूप फल को उत्पन्न करे / जब इसमें प्रमाण का लक्षण नहीं आया तब इसके प्रामाण्य का निर्णय कैसे करेंगे ? यह प्रश्न खडा होगा, किन्तु यह प्रश्न उपपन्न नहीं-युक्तिसंगत नहीं, क्योंकि• (यथाङकुरहेतु/ज...) जिस प्रकार बीज का लक्षण बनाया कि- अंकुर का हेतु है वह बीज है, तो वहां यह कोई आपत्ति नहीं दी जाती है कि 'अंकुर में भी बीजरूपता हो,' इसलिए विद्वानों के प्रति ऐसा प्रश्न नहीं किया जाता है कि बीज में तो बीजरूपता अंकुर बीज में तो बीजरूपता अंकुरजनन से निश्चित हुई किन्तु अंकुर में बीजरूपता का कैसे निर्णय करेंगे ? ( यथा चाङकुरदर्शनाद्....) कारण यह है कि, जिस प्रकार अंकुर को देखकर उसके हेतुभूत बीज में बीजरूपता निश्चित होती है, किन्तु अंकुर में कोई बीजरूपता का विचार नहीं करता है, ठीक इसी प्रकार यहां भी अर्थक्रिया स्वरूप फल को देख कर उसके साधनभूत पूर्व प्रमाण ज्ञान में प्रमाणरूपता यानी प्रामाण्य निश्चित होता है किन्तु अर्थक्रियाज्ञान में प्रमाणरूपता का विचार नहीं होता है। ( न चार्थक्रियाज्ञान०....) अगर कहें 'अर्थक्रियाज्ञान में प्रामाण्य तो होता ही है तब कोई प्रामाण्य का निश्चय करने को जाय तो अनवस्था होगी', तो यह भी कहना ठीक नहीं क्योंकि अर्थक्रिया ज्ञान प्रमाणज्ञान के फलरूप होने से प्रमाणरूपता उस में स्वतः सिद्ध है। तात्पर्य, उसका प्रामाण्य स्वतः सिद्ध है, प्रामाण्य सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं, जैसे, अंकुर बीज के फलस्वरूप होने से
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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