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________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 491 'सहकारिभिः सह तज्ज्ञानादिकं नियमेनोत्पत्तिमदिति चेत् ? तहि सहकारिणां तज्ज्ञानादेश्चैकसामग्र्यधीनत्वमभ्युपगन्तव्यम् . अन्यथाऽसहभावात् / तथैकसामग्रीलक्षणं कारणं तज्ज्ञानादिभिरन्यैर्जनितमजनितं वा तज्जनयति ? न चाजनितम् , तथैव कार्यत्वादेर्हेतोयभिचारित्वप्रसंगात् / *जनितं तज्ज्ञानादिकमभ्युपगन्तव्यं, तच्च तेन जन्येन सह नियमेनोत्पद्यमानं तदेकसामग्र्यधीनत्वमभ्युपनन्तरं सामग्र्यधीनं स्यात् / सा च सामग्री तज्ज्ञानान्तरेणोत्पादिता(न)चेति विकल्पद्वये पूर्वोक्तदोषद्वयप्रसङ्गः। प्रागनन्तरोत्पत्तिनियमाभ्युपगमे सहकारिहेतुभिरेकसामग्र्यधीनतया स्यात् तत्रापि सैकसामग्री तज्ज्ञानाद्यन्तरेण प्रेरिता जनयतीत्यभ्युपेयम् , अन्यथा ('ऽचेतनस्या)चेतनानधिष्ठितस्य वास्यादरिव जनकत्वाऽसम्भवात, ज्ञानाद्यन्तर च प्रयोत सामग्रोविशेषात प्राग (नन्तरं नियमेनोत्प. द्यमानं तद्धतभिरेकसामग्रयधीनं स्यात, अन्यथा प्रागनन्तरं नियमेनोत्पत्तिर्न स्यात / सामनयन्तरं च प्रेरितमप्रेरितं वा जनयतीति विकल्पद्वये दोषद्वयप्रसङ्ग, तेनेमं दोषं परिजिहीर्षता न तज्ज्ञानाद्युत्पत्तिः तदनन्तरं, सह, प्राग्वाऽनन्तरमभ्युपगन्तव्या / तदनन्तरं सह, प्राग्वानन्तरमुत्पत्तिनियमाभावे चांकुरादिकार्यस्य तव्यतिरेकानुविधानमुपलभ्येत, न चोपलभ्यते, क्षित्युदक-बीजादिकारणसामग्रीसंनिधाने (अर्थात् प्रथम ज्ञानादि) स्वयं उत्पन्न न होगा तब तक स्वोत्तरकाल में ( अंकुरजनक) दूसरे ज्ञानादि को उत्पन्न न कर सकेगा, अत: वही पूर्वोक्त प्रसंग ( व्यतिरेक प्रयुक्त ) कदाचित् अनुत्पत्ति का और अनवस्था का पुनः प्राप्त हुआ। अनवस्था इस रीति से कि अंकुरजनकज्ञानादि की उत्पत्ति के लिये तो आपने एक नये ज्ञानादि को मान लिया, फिर उस ज्ञानादि की उत्पत्ति के लिये नये ज्ञानादि को मानना पड़ेगा....इस प्रकार कहीं अन्त नहीं आयेगा / दूसरा यह होगा कि अन्य अन्य ज्ञान के उत्पादन में ही उन सहकारीकारणों की शक्ति क्षीण हो जाने से अंकुरोत्पादन में तो वे कुछ भी उपयोगी नहीं रहेंगे। [सहकारीवर्ग और ईश्वरज्ञान की एक सामग्रीजन्यता में आपत्ति ] ___ यदि कहें-ईश्वरज्ञानादि सहकारीयों से उत्पन्न नहीं होता किन्तु नियमतः उनके साथ ही उत्पन्न होता है अत: व्यतिरेक वाला दोष नहीं होगा।-तो यहाँ निवेदन है कि आपको सहकारीवर्ग और ईश्वरज्ञानादि दोनों एक सामग्री से उत्पन्न मानना होगा अन्यथा भिन्न भिन्न सामग्री मानने पर एक साथ उत्पन्न होने की बात नहीं घटेगी / अब दो विकल्प खड़े होंगे-A वह एकसामग्रीस्वरूप कारण भी ईश्वरज्ञानादि से जन्य होगा, B या अजन्य ? यदि B अजन्य मानेंगे तो कार्यत्व हेतु यहाँ ही साध्यद्रोही हो जाने को आपत्ति आयेगी। ___*[ यदि उसे A जन्य मानेंगे तो उसके जनक ईश्वरज्ञानादि के ऊपर दो विकल्प होंगे कि वह ज्ञानादि जन्य होगा या अजन्य, यदि अजय मानेंगे तब तो पूर्वोक्त आपत्ति परम्परया आयेगी, अर्थात् अंकुरादि की उत्पत्ति सदा होगी। ] यदि उस ज्ञानादि को जन्य मान कर चलेंगे तो भी पूर्वोक्त दोष आयेंगे, आखिर आप कहेंगे कि यह ज्ञानादि और उसके सहकारी भो एक साथ ही उत्पन्न होते हैं, * पुष्पिकाद्वयमध्यगत संस्कृत पाठ कहीं कहीं खंडित होने का पूर्व सम्पादक का अनुमान है। बात सत्य है, फिर भी हमने संदर्भ के अनुसार उसका जो हिन्दी विवेचन किया है उसको वाचकगण ध्यान से पढे और त्रुटि का यथा सम्भव परिमार्जन करें। 1. लिंबडी ग्रन्थागारादर्श कोष्ठगतपाठो नास्ति, न चावश्यकः /
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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