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________________ 462 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 प्रतिबन्धे चाऽसति अंकुरादिकार्यस्यावश्यंभावदर्शनात् / अतस्तज्ज्ञानाद्यनुविधानस्य तत्कारणत्वव्यापकस्यानुपलभ्मात् तत्कारणत्वाभावोऽङ्कुरादिकार्यस्यानुमीयते / अतो बाधा व्यापकानुपलब्च्या बुद्धिमकारणानुमानस्य / बुद्धिमत्कारणानुमानेनैव व्यापकानुपलब्धिः कस्मान्न बाध्यते ? लोहलेख्यं वज्रम् , पार्थिवत्वात् काष्ठवत्-इत्यनुमानेन प्रत्यक्षं तस्य तदलेख्यत्वग्राहकं किं न बाध्यते-इति समानम् / 'प्रत्यक्षेण तद्विषयस्य बाधितत्वाद् न तेन तद बाध्यते' इति चेत् ? बुद्धिमत्कारणत्वानुमानस्यापि तहि व्यापकानुपलब्ध्या विषयस्य बाधितत्वात् कथं तद्बाधकत्वम् ? 'बुद्धिमत्कारणत्वानुमानेनैव व्यापकानुपलब्धेविषयस्य बाधितत्वात् न तद्बाधकत्वमिति चेत् ? न, पार्थिवत्वानुमानेन तदलेख्यत्वग्राहकस्य प्रत्यक्षस्य बाधितविषयत्वाद् न तद्बाधकत्वमित्यपि वक्तुं शक्यत्वात् / अथ तदनुमानस्य तदाभासत्वात् न जब नियम से ऐसा ही मानेंगे तब तो फिर से वहाँ सहभाव बनाये रखने के लिये एक सामग्री जन्यता भी माननी पड़ेगी। फिर उस सामग्री के ऊपर ही दो विकल्प होंगे कि वह भी ईश्वरज्ञानादि से जन्य है या अजन्य ? दोनों विकल्प में पूर्वोक्त दोषप्रसंग आयेगा। [ ईश्वरज्ञानादि को सहकारी हेतु सहोत्पन्न मानने में आपत्ति ] अब यदि ऐसा कहें कि-ईश्वरज्ञानादि सहकारीयों के साथ नहीं किन्तु प्रागनन्तर अर्थात् पूर्वकाल में उत्पन्न होता है'-तब तो इसका अर्थ यह हुआ कि ईश्वरज्ञानादि सहकारीयों के साथ नहीं किन्तु सहकारी के उत्पादक हेतुओं के साथ उत्पन्न होते हैं [ क्योंकि पूर्वक्षण में दोनों की सत्ता नियमतः माननी पड़ेगी ] फलतः ईश्वरज्ञानादि और सहकारि के हेतु वर्ग-दोनों को एकसामग्री जन्य ही मानना होगा। अब फिर से यह विकल्प होंगे कि वह सामग्री भी ईश्वरज्ञानादि से जन्य है या अजन्य? वहाँ जन्य नहीं मानना पड़ेगा अन्यथा चेतन से अनधिष्ठित कुठारादि की तरह वह सामग्री भी अपना कार्य नहीं कर सकेगी। उस ईश्वरज्ञानादि को भी सामग्री-उत्पादन के लिये सामग्री के प्रागनन्तर (अर्थात् पूर्वकाल में) ही नियम से उत्पन्न मानना होगा। अतः उस सामग्री के हेतु और उस ईश्वरज्ञानादि को पुनः एक सामग्री-अधीन मानना पड़ेगा, क्योंकि उसको माने विना नियमत: उस ईश्वरज्ञानादि की प्राक्काल में उत्पत्ति नहीं होगी। अब फिर से उस एक सामग्री के ऊपर ईश्वरज्ञानादि से जन्य-अजन्य दो विकल्प और उन में पूर्वोक्त दोषों का प्रसंग परावत्तित होगा। तात्पर्य, इस दोष को हठाना हो तो आप ईश्वरज्ञानादि को न तो अंकूर के सहकारीयों के उत्तरकाल में उत्पन्न मान सकते हैं, न साथ में उत्पन्न मान सकते हैं, न तो अव्यवहित पूर्वकाल में उत्पन्न मान सकते हैं / जब उत्तरकाल में, साथ में और पूर्वकाल में ईश्वरज्ञानादि की उत्पत्ति का कोई ठीकाना ही नहीं है तब तो कभी उसके अभाव में अंकुरादि कार्य का अभाव दिखायी देना आवश्यक बन गया। किन्तु वह तो नहीं दिखता है / कारण, प्रतिबन्ध न होने पर पृथ्वी-जल-बीजादिकारणसामग्री के संनिधान में अंकरादि कार्य की उत्पत्ति नियमत: देखी जाती है। अतः तत्कारणत्व का व्यापक तज्ज्ञानादि के व्यतिरेक का अनुसरण उपलब्ध न होने से तत्कारणत्वरूप व्याप्य के अभाव का अनुमान फलित होता है। निष्कर्षः-कार्यत्व हेतु से बुद्धिमत्कारण के अनुमान करने में व्यापकानुपलब्ध्रिरूप बडी बाधा होने से ईश्वर सिद्धि दुष्कर है /
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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