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________________ प्रथम खण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः 265 मवभासयति स्वात्मना तत्कालसंबन्धित्वमननुभवदपि तदा को विरोधः ? कथं वा तस्यातीतादेरर्थस्य तज्ज्ञानकालत्वमिति ? न च सत्यस्वप्नज्ञानेऽप्यतीताद्यर्थप्रतिभासे समानमेव दूषणमिति न तदृष्टान्तद्वारेण सर्वज्ञज्ञानमतीताद्यर्थग्राहक व्यवस्थापयितयक्तम इति वक्तयक्तम , प्रविसंवादवतोऽपि विसंवादविषये विप्रतिपत्त्यभ्युपगमे स्वसंवेदनमात्रेऽपि विप्रतिपत्तिसद्भावाद् अतिसूक्ष्मेक्षिकया तस्यापि तत्स्वरूपत्वाऽसंभवात् सर्वशून्यताप्रसंगात , तनिषेधस्य च प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् / अतो न युक्तमुक्तम् 'अथ प्रतिपाद्यापेक्षया' इत्यादि......'न भ्रान्तज्ञानवान् सर्वज्ञः कल्पयितुयुक्तः' इति पर्यन्तम् / ____ यदप्युक्तम्-'भवतु वा सर्वज्ञस्तथाप्यसौ तत्कालेऽप्यसर्वज्ञातुन शक्यते'....इत्यादि, तदप्यसंगतम्-यतो यथा सकलशास्त्रार्थाऽपरिज्ञानेऽपि व्यवहारिणा 'सकलशास्त्रज्ञः' इति कश्चित् पुरुषो निश्चीयते तथा सकलपदार्थाऽपरिज्ञानेऽपि यदि केनचित् कश्चित् सर्वज्ञत्वेन निश्चीयते तदा को विरोधः ? युक्त चैतद् , अन्यथा युष्माभिरपि सकलवेदार्थाऽपरिज्ञाने कथं जैमिनिरन्यो वा वेदार्थज्ञत्वेन निश्चीयते ? तदनिश्चये च कथं तद्व्याख्यातार्थानुसरणादग्निहोत्रादावनुष्ठाने प्रवृत्तिः ? इति यत्किञ्चिदेतत् "सर्वज्ञोऽयमिति ह्य तत्" इत्यादि। [ सर्वज्ञज्ञान में अतीतकालसंबंधिता की अनापत्ति ] सर्वज्ञज्ञान में असंनिहित अर्थ के प्रतिभास की निर्दोषता में अन्य भी एक उदाहरण है-जैसे कितने ही मन्त्रवेत्ता मन्त्र से अपने नेत्र का परिष्कार करके अपने हस्त के अंगठे के नखों अन्यदेशगत चौरादि को साक्षात् देख लेते हैं, वे चौरादि उस मन्त्रवेत्ता के देश में संनिहित नहीं होते, उस वक्त मन्त्रवेत्ता का ज्ञान भी चौरादि देश संबन्धी नहीं होता फिर भी चौरादि का ज्ञान होता है / ठीक उसी प्रकार, सर्वज्ञ का ज्ञान स्वयं अतीतादि अर्थकाल का संबंधी न होने पर भी असंनिहित अतीतादि अर्थ का अवभासक हो सकता है-इस में कौनसा विरोध है ? एवं उस अतीतादि अर्थ का अन्य काल में ज्ञान में अवभास होने मात्र से अतीतादि अर्थ ज्ञानकालसंबंन्धी भी कैसे हो जायेगा? यह कहना उचित नहीं है कि-"सत्यस्वप्न ज्ञान में भो हम अतीत अर्थ का प्रतिभास ठीक नहीं मानते, अतः वहाँ भी अतीत अर्थ के प्रतिभास में वे सब दूषण तुल्य हैं जो सर्वज्ञज्ञान में हमने दिया है / अतः सत्यस्वप्नज्ञान के दृष्टान्त से सर्वज्ञज्ञान में अतीतार्थावभासकत्व का समर्थन अनुचित है"-यह कहना इसलिये अनुचित है कि जिस ज्ञान में कोई विसंवाद ही नहीं है उस ज्ञान में विसंवाद का आरोप करके उस विषय में विवाद खडा करने पर अपने सभी संवेदनों में वैसे विवाद की संभावना हो सकेगी। फिर उसका अति सूक्ष्म आलोचन करने द्वारा कहा जा सकेगा कि हम लोगों के भी सभी संवेदन में तत्तद् अर्थग्रहण स्वरूपत्व का संभव नहीं है-परिणाम यह आयेगा कि किसी भी संवेदन से किसी भी अर्थ की निर्विवाद सिद्धि असंभव हो जाने से किसी भी पदार्थ की निर्बाध सत्ता सिद्ध न होने पर शून्यवाद घुस जायेगा / शून्यवाद का स्वीकार नितान्त अनुचित है यह हम आगे दिखाने वाले हैं। इस पूरे कथन का आशय यह है कि आपने जो अतीतादि के संबंध में पहले ऐसा कहा था "प्रतिपाद्य की अपेक्षा अतीतत्वादि का अभाव मानना ठीक नहीं" [ प०२१६ ]-........इत्यादि से लेकर "भ्रान्तज्ञान वाले सर्वज्ञ की कल्पना ठीक नहीं है" इत्यादि [ पृ० 218 ]....वह सब व्यर्थ प्रलाप है। [ सर्वज्ञरूप में सर्वज्ञ की प्रतीति अशक्य नहीं है] यह जो आपने कहा था [धृ० 218 पं० ६]-"सर्वज्ञ का अस्तित्व भले हो, किन्तु “यह सर्वज्ञ है"
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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