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________________ 264 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 एतदसंबद्धम्-यतो यथाऽस्मदादीनामसंनिहितकालोऽप्यर्थः सत्यस्वप्नज्ञाने प्रतिभाति, न चाऽसंनिहितस्य तस्यातीतादिकालसंबन्धिनो वर्तमानकालसम्बन्धित्वम् , नाऽपि स्वकालसंबन्धित्वेन सत्यस्वप्नज्ञाने तस्य प्रतिभासनात् तद्ग्राहिणो ज्ञानस्य विपरीतख्यातित्वम् / यत्र ह्यन्यदेशकालोऽर्थोऽन्यदेशकालसंबंधित्वेन प्रतिभाति सा विपरीतख्यातिः। प्रत्र त्वतीतादिकालसंबन्धी अतीतादिकालसंबंधित्वेनैव प्रतिभातीति न तत्प्रतिभासिनोऽर्थस्य तत्कालसंबन्धित्वेन वर्तमानत्वम् , नापि तद्ग्राहिणो विज्ञानस्य . विपरीतख्यातित्वम्-तथा सर्वज्ञज्ञानेऽपि यदा यदातीतादिकालोऽर्थोऽतीतादिकालसंबन्धित्वेन प्रतिभाति तदा कथं तस्यार्थस्य वर्तमानकालसंबन्धित्वम् ? कथं वा तज्ज्ञानस्य विपरीतख्यातित्वमिति ? - यथा वा विशिष्टमन्त्रसंस्कृतचक्षुषामंगुष्ठादिनिरीक्षणेनान्यदेशा अपि चौरादयो गृह्यमाणा न तद्देशा भवन्ति, नापि तज्ज्ञानं तद्देशादिसंबन्धित्वमनुभवति, तथा सर्वविद्विज्ञानमप्यसंनिहितकालं यथार्थभास मानना अनुचित है / कारण, ज्ञान काल में अतीतादि वस्तु संनिहित नहीं है / अथवा यदि उसे संनिहित मानेंगे तो अन्य पदार्थ जैसे तत्कालज्ञानावभासि होने से वर्तमानकालसंबंधी होते हैं उसी प्रकार अतीतादि पदार्थ भी तत्कालज्ञानावभासी मानने पर वर्तमानकाल के संबंधी भी मानने होंगे जो सिद्धान्तविरुद्ध है। वर्तमान पदार्थों में जो वर्तमानकालसंबंधिता मानी जातो है उसका अर्थ यही है कि वे पदार्थ संनिहित होने के कारण वर्तमानकालीन ज्ञान में अवभासी हैं, इससे अन्य उसका कोई अर्थ संगत नहीं है। यदि अतीतादि पदार्थों को भी वर्तमानकालीनज्ञानावभासी मानेंगे तो उन्हें वर्तमान ही मानना होगा। इस का सार यह निकलेगा कि सर्वज्ञ केवल वर्तमानकालोनपदार्थों को ही जानता है, फिर तो वह हम लोगों के तुल्य हो जाने से सर्वज्ञ ही नहीं रहेगा। दूसरा यह भी कह सकते हैं किअतीतादि के ज्ञान काल में अतीत पदार्थ संनिहित न हो सकने के कारण उस ज्ञान में उसका प्रतिभास ही शक्य नहों, अगर शक्य हो तो उस ज्ञान में अन्यथाख्याति यानो भ्रमत्व दोष की आपत्ति होगी, कारण, स्वज्ञान यानी वर्तमानकालज्ञान के संबंधिरूप में अतीतादि का ग्रहण हो रहा है / तात्पर्य यह है कि अतीतादि का ग्रहण अतीतकालसंबंधिरूप में होना चाहिए उसके बजाय वर्तमानकालसंबंधिरूप में जब माना जाता है तो वह भ्रमज्ञान ही कहा जायेगा। [अतीतादि काल के प्रतिभास की उपपत्ति ] . उपरोक्त शंका संबंधशून्य है / कारण, हम लोगों को जो अर्थ इस काल में असंनिहित है उसका भी सच्चे स्वप्नज्ञान में प्रतिभास होता है / वह अर्थ तो अनागतादिकालसंबंधि होने के कारण असंनिहित होने से वर्तमान कालसंबंधी किसी भी प्रकार नहीं होता, तथा स्वकीय अनागतादि काल के सम्बन्धीरूप से ही वह सच्चे स्वप्नज्ञान में भासित होता है अतः उस अनागतार्थग्राही ज्ञान विपरीतख्याति (=भ्रम) रूप भी नहीं होता। भ्रमरूप ज्ञान वहाँ होता है जहाँ किसी एक देश-कालवर्ती अर्थ का अन्यदेश कालसंबन्धीरूप से प्रतिभास होता है / यहाँ स्वप्न ज्ञान में तो जो अतीतादिकालसंबन्धि अर्थ है उसका अतीतादिकालसंबन्धिरूप से ही ग्रहण होता है, अतः इस ज्ञान में प्रतिभासमान अर्थ का ज्ञानकालसंबंधिता के द्वारा वर्तमानत्व आपन्न नहीं होता और इसी लिये अतीतार्थगाही सच्चा स्वप्नज्ञान विपरीतख्यातिरूप भी नहीं हो सकता। ठीक उसी प्रकार सर्वज्ञज्ञान में भी जब अतीतादिकालसंबन्धी अर्थ अतीतादिकालसंबंधितया भासित होता है तो उस अर्थ में किस प्रकार वर्तमानकालसंबंधिता का आपादन किया जा सकता है ? और उस ज्ञान को विपरीतख्यातिरूप भी कैसे कहा जाय?
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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