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________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वराकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 441 न चाऽजनकं सहकारि, 'सह करोतीति सहकारि' इति व्युत्पत्तेः / न चाऽसत् शशविषाणसमं ज्ञानस्यान्यस्य वा कारणम् , विरोधात् / अपि च, इन्द्रियार्थसंनिकर्षात प्रत्यक्षं ज्ञानमुत्पत्तिमत् , कार्यकारणादिना चेन्द्रियसंनिकर्षः संयोगः, सोऽपि कथं तेनाऽसता जन्यत इति चिन्त्यम् / संयोगाभावे च 'रूपादिनेन्द्रियस्य संयुक्तसमवायः, रूपत्वादिना तु संयुक्तसमवेतसमवायः' इति सर्व दुर्घटम / एतेन द्रव्यत्वादिसामान्यसम्बधोऽपि तस्य निरूपितः / तन्न तन्वादिविषयमध्यक्षम् / अत एव नानुमानमपि / तदेवं खरविषाणादिवत् कार्य-कारणादेरनुपलम्भान्न युक्तमेतत्-शरीरादेः कारणमस्ति, न शशशृङ्गादेरिति / यदि पुनस्तनुकरणादिः सन वन्ध्यासुतादिपरिहारेणेति मतिः, तत्र कुतः स एव सन् ? कारणसमवायात् , सोपि कुतः ? सत्त्वात् , अन्योन्यसंश्रयः तत्समवायात सत्त्वम् अतश्च तत्समवाय इति / B 'प्रागसतः सत्तासमवायात स एव सन्' इति चेत् ? कुतः प्राक् ? सत्तासमवायात् / ननु तत्समवायकाले प्रागिव स्वरूपसत्त्वविरहे 'प्राग' इति विशेषणमनर्थकमित्यादि सर्वं वक्तव्यम् / असतश्च कार्य और कारण उपलब्ध होने पर यह कहा जा सकता है कि-यह इसका कारण है और यह इसका कार्य है, प्रतिवादी नैयायिकमत में कार्य-कारण का उपलम्भ प्रत्यक्ष से तो होता नहीं / नैयायिकों का मत तो यह है कि जो उपलम्भ का कारण बने वही उपलम्भ का विषय होता है / न्यायसूत्र के वात्स्यायन कृत भाष्यग्रन्थ के प्रारम्भ के 'अर्थवत् प्रमाणम्' इस अंश की व्याख्या में ऐसा कहा गया है कि जो 'प्रमाता और प्रमेय' से भिन्न है एवं अव्यपदेश्य-अव्यभिचारि-व्यवसायात्मक ज्ञान करने में अर्थ जिस को सहकार देता है और जो सप्रयोजन है वही प्रमाण है / इस प्रकार के व्याख्यान से यह फलित होता है कि उपलम्भ का कारण बने वही उपलम्भविषय हो सकता है, कार्य-कारण का प्रत्यक्ष तो नैयायिक मानते नहीं फिर उसका उपलम्भ कैसे होगा ? जब कार्य-कारण का उपलम्भ ही अघटित है तो 'देहादि के कारण उपलब्ध होते हैं, शशसींग के नहीं यह बात असद् उत्तररूप बन जाती है। . [ असत् वस्तु किसी का कारण भी नहीं होता ] . . आशय यह है कि कार्य और कारण उपलम्भ के जनक नहीं है अत एव वे 'सहकारि' भी नहीं कहे जा सकते, क्योंकि 'सहकारि' पद की व्युत्पत्ति यानी पद के विभाजन से प्राप्त अर्थ ही ऐसा है कि जो 'साथ में रहता हुआ करे'। जो स्वयं ही असत् है वह शशविषाणतुल्य होने से ज्ञान (उपलम्भ) अथवा तदन्य किसी भी पदार्थ का कारण ही नहीं बन सकता चूकि इसमें विरोध आयेगा / असत्त्व और कार्यकारित्व का विरोध प्रसिद्ध ही है। दूसरी बात, प्रत्यक्ष ज्ञान की उत्पत्ति इन्द्रिय-अर्थ के संनिकर्ष से होती है / कार्य-कारण के प्रत्यक्ष के लिये भी उन के साथ इन्द्रियसंनिकर्षात्मक संयोग अपेक्षित होगा / जब कार्य असत् ही है तो उससे संयोग का जन्म ही कैसे होगा? यह विचारणीय प्रश्न है / जब कार्य के साथ संयोग असिद्ध हुआ तो कार्यगत रूपादि के साथ इन्द्रिय का संयुक्त समवाय संनिकर्ष घटाना मुश्किल है और रूपादिगत रूपत्वादि के साथ संयुक्तसमवेतसमवाय संनिकर्ष घटाना भी दुष्कर है / इस रीति से जब कारणों में असत् कार्य का समवाय नहीं घट सकता तो इस से यह भी फलित हो जाता है कि असत कार्य में द्रव्यत्व-पृथ्वीत्वादि सामान्य का सम्बन्ध घटाना भी दुष्कर ही है / निष्कर्ष, देहादि (अवयवी) को सिद्ध करने वाला प्रत्यक्षप्रमाण कोई है नहीं इसीलिए अनुमान भी नहीं हो सकता। इससे यह सिद्ध होता है कि शशसींगतुल्य कार्य-कारण आदि का उपलम्भ न होने, 'शरीरादि के कारण उपलब्ध हैं और शससींग का नहीं यह बात अयुक्त है।
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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