SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 446
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे पूर्वपक्षः 413 जगत्कर्तृत्वसिद्धरेवेति ब्रमः / तथा चाहुः प्रशस्तमतिप्रभृतयः-“कर्तुः कार्योपादानोपकरणप्रयोजनसम्प्रदानपरिज्ञानात्" / इह हि यो यस्य कर्ता भवति स तस्योपादानानि जानीते, यथा कुलाल: कुण्डादीनां कर्ता, तदुपादानं मत्पिण्डम् , उपकरणानि चक्कादीनि, प्रयोजनमुद काहरणादि, कुटुम्बिनं च सम्प्रदानं जानीत इत्येतत् सिद्धम् , तथेश्वरः सकलभवनानां कर्ता, स तदुपादानानि परमाण्वादिलक्षणानि, तदुपकरणानि धर्म-दिक-कालादीनि, व्यवहारोपकरणानि सामान्य-विशेष-समवायलक्षणानि, प्रयोजनमुपभोगं. सम्प्रदानसंज्ञकांश्च पुरुषान् जानीत इति, अतः सिद्धमस्य सर्वज्ञत्वमिति / ____अत एव नात्रैतत् प्रेरणीयम्-सर्वज्ञपूर्वकत्वे क्षित्यादीनां साध्ये साध्यविकलो दृष्टान्तः, हेतुश्च विरुद्धः, असर्वज्ञकर्तृ पूर्वकत्वेन कुम्भादेः कार्यस्य व्याप्तिदर्शनात् , किचिज्ज्ञपूर्वकत्वे क्षित्यादिनां साध्येऽभ्युपेतबाधा, कारणमात्रपूर्वकत्वे साध्ये कर्मणा सिद्ध साधनमिति / यतः सामान्येन स्वकार्योपादानोपकरणसम्प्रदानाभिज्ञकर्तृ पूर्वकत्वं साध्यते, तत्र चास्त्येव वस्त्रादिदृष्टान्तः। तस्य ह्य पादानोपकरणाद्यभिज्ञकर्तृ पूर्वकत्वं सकललोकप्रसिद्ध कथमन्यथाकत शक्यतेऽपह्नोतु वा ? न तु कर्मणा सिद्धसाध्यता, तस्य सकलजगल्लक्षणकार्योपादानाद्यनभिज्ञत्वात् , तदभिज्ञत्वे वा तस्यैव भगवतः 'कर्म' इति नामान्तर कृतं स्यात / शेषं त्वत्र चिन्तितमेव / तदेवं सकलदोषरहितादुक्तहेतुकलापाद् ज्ञानाद्यतिशयवद्गुणयुक्तस्य सिद्धेः तस्य च शासनप्रणेतृत्वं नान्येषां योगिनामिति ‘भवजिनानां शासनम्' अयुक्तमुक्तमिति स्थितम्-इति पूर्वपक्षः // उत्तरः-जगत्कर्तृत्व की सिद्धि से ही हम सर्वज्ञता की सिद्धि कहते हैं / जैसे कि प्रशस्तमति आदि ने कहा है-'कर्ता को कार्य के उपादान, उपकरण, प्रयोजन, सम्प्रदान ये सब ज्ञात रहते हैं' इस हेतु से सर्वज्ञता सिद्ध होती है। विश्व में जो जिसका कर्ता होता है वह उसके उपादानादि को जानता होता है, जैसे: कुम्भकार कुण्डादि का कर्ता है तो कुण्ड के मृत्पिडरूप उपादान चक्र-चीवरादि, उपकरण, तत्साध्यकार्यभूत जलाहणादि प्रयोजन तथा उसके उपयोग करने वाले कुटुम्बिजन रूप सम्प्रदान, इन सभी को वह जानता है, यह प्रसिद्ध है। ठीक उसी प्रकार, ईश्वर सकल भुवन का का है तो वह उसके उपादान परमाणु आदि रूप तथा उसके उपकरण धर्म (अदृष्ट)-दिशा-कालादि, तथा सामान्य-विशेष और समवाय रूप व्यवहार प्रयोजक उपकरण, जीवों के भोगोपयोगरूप प्रयोजन तथा सम्प्रदानभूत पुरुषादि सभी को जानता ही होगा, इसलिये वह सर्वज्ञ है यह सिद्ध होता है / [ नैयायिक के पूर्व पक्ष का उपसंहार ] उपादानादिज्ञातृत्वरूप से सर्वज्ञता सिद्ध है इसीलिये यहाँ ऐसे किसी भी विक्षेप को अवसर नहीं है कि.....सर्वज्ञपूर्वकत्व यदि साध्य करेंगे तो दृष्टान्त साध्यशून्य होगा और हेतु भी विरोधी बनेगा; क्योंकि असर्वज्ञकर्तृपूर्वकत्व के साथ कार्यत्व की व्याप्ति कुम्भादि में दृष्ट है। यदि अल्पज्ञपूर्वकत्व साध्य करेंगे तो साध्य ईश्वर में स्वीकृत सर्वज्ञता का बाध होगा। यदि कारणमात्रपूर्वकत्व साध्य करेंगे तो कर्म (अदृष्ट) से ही सिद्धसाधन है। इत्यादि....ऐसे किसी भी विक्षेप को अब इसलिये अवसर नहीं है कि जब हम कार्यत्व हेतु से सामान्यतः स्वकार्य-उपकरण-(प्रयोजन)-संप्रदानाभिज्ञकर्तृ पूर्वकत्व को साध्य करते हैं तो दृष्टान्तभूत वस्त्रादि साध्यशून्य नहीं है / वस्त्रादि की उत्पत्ति उपादान-उपकरणादि को जानने वाले कर्ता से होती है वह तो सर्वलोक में प्रसिद्ध है, इस स्थिति को कैसे पलटायी जा सकती है या उसका अपलाप भी कैसे हो सकता है ? कर्म ( अदृष्ट ) से भी
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy