________________ 414 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अत्र प्रतिविधीयते / यत् तावदुक्तम्-'सामान्यतोदृष्टानुमानस्य तत्र व्यापाराभ्युपगमात् प्रत्यक्षपूर्वकानुमाननिषेधे सिद्धसाधनम्' इति, तदसंगतम्-सामान्यतोदृष्टानुमानस्यापि तत्साधकत्वेनाऽप्रवृत्तेः / तथाहि, तनु-भवन-करणादिकं बुद्धिमत्कारणपूर्वकम् , कार्यत्वात् , घटादिवत्-इत्यत्र धर्यसिद्धराश्रयासिद्धस्तावत् कार्यत्वलक्षणो हेतुः / तथाहि-प्रवयविरूपं तावत् तन्वादि अवभासमानतनु न युक्तम् , देशादिभिन्नस्य तन्वादेः स्थूलस्यैकस्याऽनुपपत्तेः / न ह्यनेकदेशादिगतमेकं भवितुं युक्तम् , विरुद्धधर्माध्यासस्य भेदलक्षणत्वात् , देशादिभेदस्य च विरुद्धधर्मरूपत्वात् / तथाप्यभेदे सर्वत्र भिन्नत्वेनाभ्युपगते घटपटादावपि भेदोपरतिप्रसंगात् / नहि भिन्नत्वेनाभ्युपगते तत्राप्यन्यद् भेदनिबन्धनमुत्पश्यामः / 'प्रतिभासभेदात्तत्र भेद' इति चेत् ? न, विरुद्धधर्माध्यासं भेदकमन्तरेण प्रतिभासस्यापि भेदानुपपत्तेः। सिद्धसाध्यता दोष नहीं हो सकता. क्योंकि उसमें समग्रजगतस्वरूप कार्य के उपादानादि की अभिज्ञता सिद्ध नहीं है / यदि ऐसी अभिज्ञता उसमें मान ली जाय, तब तो आपने भगवान का ही 'कर्म' ऐसा नामान्तर कर दिया, तो ईश्वर सर्वज्ञ ही सिद्ध हुआ। प्रतिपक्षीयों की शेष युक्तियों का विचार तो हो चुका है। ___इस प्रकार सर्वदोषशून्य पूर्वोक्त हेतुकलाप से ज्ञानादि सातिशयगुणवाला ईश्वर सिद्ध होने पर उसीको शासनप्रणेता मान लेना उचित है किन्तु अन्य किसी रागादिविजेता योगियों को नहीं / अत: आपने जो कहा है ‘भवविजेताओं का शासन'-वह अयुक्त कहा है. यह सिद्ध हुआ। इस प्रकार ईश्वरकतृ त्वपूर्वपक्ष पूरा हुआ। [ ईश्वरकर्तृत्वपूर्वपक्ष समाप्त ] [ ईश्वरकर्तृत्ववादसमालोचना] अब ईश्वर में कर्तृत्व का प्रतिषेध किया जाता है पूर्वपक्षी ने जो कहा है-'ईश्वर सिद्धि में हम सामान्यतोदृष्ट अनुमान का ही. सामर्थ्य मानते हैं, अतः प्रतिवादी के 'प्रत्यक्षपूर्वक अनुमान ईश्वरसाधक है नहीं' ऐसे प्रतिपादन में सिद्धसाधन दोष है'- [ पृ० 383 पं० 1 ] वह असंगत है, क्योंकि सामान्यतोदृष्ट अनुमान भी ईश्वर की सिद्धि के लिये नहीं प्रवर्त्त सकता / कारण, आपने जो यह अनुमान कहा है-'देह-भुवन-कारणादि बुद्धिमत्कारणमूलक है क्योंकि कार्य है जैसे घटादि'- इस अनुमान में कार्यत्व हेतु आश्रयासिद्ध है, क्योंकि अवयवी रूप देहादि ही असिद्ध है। [संदर्भ:-अब व्याख्याकार 'तथाहि'....इत्यादि से लेकर अवयविनोऽसिद्धेराश्रयासिद्धो हेतू ... [ पृ० 427 पं० 7 ] यहां तक अवयवी का प्रतिषेध प्रस्तुत करते हैं ] देहादि अवयवी असिद्ध होने से आश्रयासिद्धि ] जैसे देखिये-शरीरादि यदि अवयवोरूप है तो उसके स्वरूप का अवभास हो नहीं सकता। क्योंकि शरीरादि वस्तु हस्त-पादादि देशभेद के कारण भिन्न भिन्न है, अतः एक और स्थूल ऐसा अवयवी मानने में कोइ युक्ति नहीं है / जो वस्तु अनेक देश को व्याप्त कर के रहती है वह एकात्मक नहीं हो सकती। ( जैसे कोई महान् धान्यराशि ) / भेद का लक्षण यानी ज्ञापक चिह्न विरुद्धधर्माध्यास