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________________ प्रथमखण्ड-का०१-सर्वज्ञसिद्धिः 213 अथ यथा रजो-नोहाराद्यावरणावृतवृक्षादिदर्शनमविशदं तदावरणापाये वैशद्यमनुभवति एवं रागाद्यावारकाणां विज्ञानाऽवेशद्यहेतूनामपाये सर्वज्ञज्ञानं विशदतामनुभविष्यतीति / असदेतत् , रागादीनामावरणत्वाऽसिद्धेः, कुड्यादीनामेव ह्यावारकत्वं लोके प्रसिद्धं न रागादीनाम् / तथाहि-रागादिसद्भावेऽपि कुड्याद्यावारकाभावे विज्ञानमुत्पद्यमानं दृष्टम् , रागाद्यभावेऽपि कुड्याद्यावारकसद्भावे न विज्ञानोदय इत्यन्वय-व्यतिरेकाभ्यां कुड्यादीनामेवाऽऽवरणत्वावगमो न रागादीनामिति न रागादय आवारका इति न तद्विगमोऽपि सर्वविद्विज्ञानस्य वैशद्यहेतुः। _किं च, सर्ववेदनं सर्वज्ञज्ञानेन किं समस्तपदार्थग्रहणमुत शक्तियुक्तत्वम् , पाहोस्वित् प्रधानभूतकतिपयपदार्थग्रहणम् ? तत्र यद्याद्यः पक्षस्तत्रापि वक्तव्यम्-कि क्रमेण तद्ग्रहणम् ? आहोस्विद् योगपयेन ? तत्र यदि क्रमेण तद्ग्रहणम् , तदयुक्तम् , प्रतीतानागतवर्तमानपदार्थानामपरिसमाप्तेस्तज्ज्ञानस्याप्यपरिसमाप्तितः सर्वज्ञताऽयोगात् / अथ युगपदनन्तातीतानागतपदार्थसाक्षात्कारि तद्वेदनमभ्युपगम्यते. तदप्यसत. परस्परविरुद्धानां शीतोष्णादीनामेकज्ञाने प्रतिभासाऽसम्भवात, सम्भवे वा न कस्यचिदर्थस्य प्रतिनियतस्य तद् ग्राहकं स्यादिति किं तज्ज्ञानेन अस्मदादिभ्योऽपि व्यवहारिभ्यो होनतर (? रेण) इति कथं सर्वज्ञः ? यानी दृढ संस्कार के बल से, कामराग, शोक, भय, उन्माद, चोरभय, स्वप्नादि से जब चित्त उपप्लुत यानी अतिभावित हो जाता है तब तद् तद् विषय का विशद ज्ञान होता है [ जैसे कामान्ध को अपनी प्रियतमा का साक्षात् आभास स्तम्भादि में होता है ] / इस तर्क के विरुद्ध हमें यह कहना है कि अभ्यास के बल से कामी पुरुष आदि को यद्यपि सोपप्लव ज्ञान का उदय होता है किन्तु वह विपर्यासमय होता है, सत्य नहीं होता। उसी प्रकार अभ्यासबल से जो अतीन्द्रियार्थज्ञाता का विज्ञान होगा वह भी सोपप्लव होने से विपर्यासमय ही होगा, सत्य नहीं होगा। [रागादि ज्ञानावारक नहीं है ] अब यदि ऐसा कहा जाय कि-जब वायुमण्डल धूलिव्याप्त हो जाता है अथवा तुहिनव्याप्त हो जाता है तब समीपवर्ती भी धूमादि का दर्शन धुंधला होता है स्पष्ट नहीं होता / किन्तु तुहिन या धूलि के बिखर जाने पर वृक्षादि का स्पष्ट दर्शन होता है-इसी प्रकार विज्ञान की अविशदता के हेतुभूत आवारक रागादि ध्वस्त हो जाने पर सर्वज्ञ का ज्ञान अत्यन्त विशदता को प्राप्त कर लेंगे-कोई दोष नहीं है। विरोधी के अभिप्राय से उपरोक्त आवरण की बात असत् है, क्योंकि रागादि की आवरणरूप में सिद्धि नहीं है। लोक में भी दिवार आदि ही आवरणरूप में सिद्ध है. रागादि नहीं। जैसेरागादि के होने पर भी दिवार आदि की आड न होने पर ज्ञानोत्पत्ति होती है किंतु रागादि के न होने पर भी दिवार आदि की आड होने पर ज्ञानोत्पत्ति नहीं होती-इस प्रकार के अन्वय-व्यतिरेक से दिवार आदि का ही आवरणरूप में भान होता है न कि रागादि का। अत: रागादि आवरणरूप न होने से उसके विनाश को सर्वज्ञज्ञान की विशदता का संपादक नहीं माना जा सकता। [ सर्वज्ञज्ञान की तीन विकल्पों से अनुपपत्ति ] सर्वज्ञज्ञान के ऊपर निम्नोक्त तीन विकल्प भी संगत नहीं हैं। विकल्प इस प्रकार के हैं
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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