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________________ 454 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अपि च, अनेकव्यक्तिव्यापि सामान्यं तद्वादिभिरभ्युपगम्यते / न च तद्व्यापित्वं तस्य केनचित ज्ञानेन व्यवस्थापयितु शक्यम् / तथाहि-संनिहितव्यक्तिप्रतिभासकाले जातिस्तद्व्यक्तिसंस्पशिन मवभाति न व्यक्त्यन्तरसम्बन्धितया, तस्यास्तथाऽसन्निधानेन प्रतिभासाऽयोगात् / तदप्रतिभासे च तन्मिश्रताऽपि नावगतेति कथमसन्निहितव्यक्त्यन्तरसम्बद्धशरीरा जातिरवभाति / यदेव हि परिस्फुटदर्शने प्रतिभाति रूपं तदेव तस्या युक्तम् , दर्शनाऽसंस्पशिनः स्वरूपस्याऽसंभवात , सम्भवे वा तस्य दृश्यस्वभावाद् भेदप्रसंगात , तदेकत्वे सर्वत्र भेदप्रतिहतेः अनानक जगत् स्यात् / दर्शनगोचरातीतं च. व्यक्त्यन्तरसम्बद्धं जातिस्वरूपमप्रतिभासनादसत् प्रतिभासने वा तस्य तत्सम्बद्धानां व्यवहितव्यक्त्यन्तराणामपि प्रतिभासप्रसंग इति सकलजगत्प्रतिभासः स्यात् / अथ मतम्-संनिहितव्यक्तिदर्शनकाले व्यक्त्यन्तरसम्बन्धिनी जातिन भाति, यदा तु व्यक्त्यन्तरं दृश्यते तदा तद्दर्शनवेलायां तद्गतत्वेन जातिराभातीति साधारणस्वरूपपरिच्छेदः पश्चात् सम्भवतीति, ततश्च पश्चादर्थान्वयदर्शने कथं न तस्यास्तव्यापिताग्रहः ? असदेतत्-यतो व्यक्त्यन्तरदर्शनकालेऽपि विनाशरूप फल प्राप्त होता है अतः आमला के फल आदि ही रोगविनाशकार्य में समर्थ जाने जाते हैं, व्यक्तिभेद तो ककडी और दहीं आदि में भी है किन्तु वे रोगविनाशक नहीं देखे जाते / [भिन्नव्यक्ति में तुल्याकारप्रतीति का आलम्बन बुद्धि है ] नैयायिकः-भिन्न पदार्थों में भी 'सत्-सत्' ऐसी बुद्धि तो होती ही है / अतः उनमें एकरूपता होनी ही चाहिये, भिन्न पदार्थों में यह जो एकरूपता है वही जाति है। उत्तरपक्षी:-इसमें यह कहना है कि घट-पटादि से व एकत्व भिन्न है या अभिन्न ? भिन्न नहीं मान सकते क्योंकि व्यक्ति से भिन्न जाति का दर्शन ही नहीं होता यह पहले कह दिया है [पृ० 451-10] अभिन्न भी नहीं कह सकते क्योंकि वह एकाकार व्यक्ति से अलग ही भासित होने का आप मानते हैं। घट और पट का कहीं भी एक स्वरूप भासित नहीं होता, प्रत्येक द्रव्य सर्वथा एक-दूसरे से भिन्न ही भासित होते हैं। इससे यह फलित होता है कि प्रतीत न होने के कारण, व्यक्ति से अभिन्न भी कोई जाति पदार्थ नहीं है / तब जो तुल्याकार प्रतिभास होता है वह बुद्धिस्वरूप हो है, जिसको दिखाने के लिये 'सत्-सत्' ऐसा शब्दप्रयोग किया जाता है / अत: भिन्न भिन्न व्यक्तिओं में तुल्याकार बुद्धि का ही अन्वय मानना युक्त है, स्वतन्त्र एक जाति का नहीं, क्योंकि वैसा दिखता नहीं है / एकबुद्धिस्वरूप दूसरे बुद्धिस्वरूप से कभी अनूगत प्रतीत नहीं होता इसलिये सामान्य को बुद्धिस्वरूप भी नहीं माना जा सकता / निष्कर्ष:-एक अनुगत जाति का प्रतिपादन मिथ्या प्रतिपादन है / जाति में अनेक व्यक्तिव्यापकता की अनुपपत्ति ] दूसरी बात यह है कि नैयायिकवादि लोग सामान्य को अनेक व्यक्ति में व्यापक एक तत्त्व मानते हैं। किंतु उसकी अनेकव्यक्तिव्यापकता किसी भी ज्ञान से स्थापित नहीं की जा सकती। देखिये-निकटवर्ती व्यक्ति के प्रतिभासकाल में उस व्यक्ति से सम्बद्ध जाति का ही स्पष्ट भान हो सकता है, अन्य व्यक्ति के सम्बन्धीरूप में उस जाति का उसी काल में भान नहीं हो सकता, क्योंकि अन्यव्यक्ति उस काल में निकटवर्ती न होने से उसका बोध शक्य नहीं है / उस अन्य व्यक्ति का बोध न होने से उसमें मिश्रित रूप से अर्थात् तवृत्तित्वरूप से जाति का भी भान नहीं हो सकता, तब अनिकटवर्ती अन्य व्यक्ति से सम्बद्ध स्वरूपवाली जाति का भान कैसे हो सकता है ? स्पष्ट दर्शन में
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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