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________________ प्रथम खण्ड-का० 1 वेदाप्रामाण्य 87 पलब्धिः / न चाऽसिद्धो हेतुः, भवदभिप्रायेण प्रेरणायां गुणवतो वक्तुरभावे तद्गुणैरनिराकृतैर्दोषैर्जन्यमानत्वस्य प्रेरणाप्रभवे ज्ञाने सिद्धत्वात् / __ अथ स्यादयं दोषो यदि वक्तृगुणैरेव प्रामाण्यापवादकदोषाणां निराकरणमभ्युपगम्यते, यावता वक्तुरभावेनापि निराश्रयाणां दोषारणामसद्भावोऽभ्युपगम्यत एव / तदुक्तम्-[ श्लो०वा०२, 62-63] शब्दे दोषोद्धवस्तावद वक्त्रधीन इति स्थितम् / तदभावः क्वचित तावद् गुणवद्वक्तृकत्वतः // तद्गुणैरपकृष्टानां शब्दे संक्रान्त्यसम्भवात् / यद्वा वक्तुरभावेन न स्युर्दोषा निराश्रयाः / / इति / भवेदप्येवं, यद्यपौरुषेयत्वं कुतश्चित् प्रमाणात सिद्धं स्यात्. तच्च न सिद्धं, तत्प्रतिपादकप्रमाणस्य निषेत्स्यमानत्वात / अत एव चेदमप्यनुदघोष्यम्-श्लो० वा० स०२-श्लो०६८ ] तत्रापवादनिमुक्तिर्ववत्रभावाल्लघीयसी। वेदे तेनाऽप्रमाणत्वं नाशंकामपि गच्छति // __ तेन गुणवतो ववतुरनभ्युपगमाद् भवद्भिः अपौरुषेयत्वस्य चासम्भवादनिराकृतैर्दोषैर्जन्यमानत्वं हेतुः प्रेरणाप्रभवस्य चेतसः सिद्धः, दोषजन्यत्व-अप्रामाण्ययोरविनाभावस्यापि मिथ्याज्ञानेऽन्यत्र वाक्य से उत्पन्न ज्ञान है / इस प्रकार यहाँ कारणविरुद्धोपलब्धि रूप हेतु प्रयोग है-प्रमाणज्ञान के कारण गुणवान् होते हैं, उससे विरुद्ध दोषयुक्त कारण यहाँ उपलब्ध हैं इसलिये कारणविरुद्धोपलब्धि हुयी / अगर यहाँ हेतु असिद्ध होने की शंका की जाय कि-'दोषवत् प्रेरणावाक्यजन्यत्व हेतु में, प्रेरणा वाक्य के दोष ही कहाँ सिद्ध हैं जिससे दोषवत्प्रेरणावाक्यजन्यत्व हेतु उपलब्ध हो सके'-तो यह हेतुअसिद्धि की शंका निर्मूल है क्योंकि मीमांसक मतानुसार प्रेरणावाक्यों का कोई गुणवान् वक्ता है ही नहीं, वाक्यान्तर्गत दोषों का निराकरण वक्ता के गुणों से होता है, किन्तु यहाँ गुणवान् वक्ता न होने से दोष का निराकरण नहीं होगा, तो यह सिद्ध होगा कि प्रेरणावाक्य जनित ज्ञान गुणों से अनिराकृत दोष वाले ऐसे वाक्य से उत्पन्न हुआ है / इस प्रकार हेतु असिद्ध नहीं है। [ वक्ता न होने से दोषाभाव होने की शंका ] / यदि यह कहा जाय कि-"यह तथाकथित दोष तब हो सकता है जब प्रामाण्य के अपवादक दोषों का निराकरण मात्र वक्ता के गुणों से ही होता है ऐसा माना जाय / किन्तु दोषों का अभाव इस प्रकार भी हो सकता है-प्रेरणावाक्य का कोई वक्ता ही नहीं है, वक्ता न होने से दोष कहां रहेंगे ? यगत गूणदाष तो वक्तागत गूणदोष से ही प्रयुक्त होता है। जब वाक्य का कोई वक्ता ही नहीं है तो तदाश्रित दोषों का वाक्य में उतर आना भी संभव नहीं है / तात्पर्य, वक्ता न होने से आश्रयहीन दोषों के अभाव को हम मानते ही हैं / कहा भी है - ___ “शब्द में दोष का उद्भव वक्ता को अधीन है यह तो सिद्ध ही है। दोष का अभाव कहीं पर वक्ता गुणवान होने से होता है। क्योंकि उसके गुणों से दूरोत्क्षिप्त दोषों का फिर शब्द में संक्रमण सम्भवित नहीं है। अथवा वक्ता ही न होने से आश्रयहीन बने हुए दोषों का (वाक्य में) सम्भव नहीं होता।" [वेद में अपौरुषेयत्व सिद्ध नहीं है-उत्तर ] किन्तु यह मीमांसक कथन युक्त नहीं है, क्योंकि वैसा तब हो सकता यदि वेदवचन में पुरुषा
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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