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________________ प्रथमखण्ड-का० १-प्रामाण्यवाद 67 न चार्थक्रियाज्ञानस्याप्यवस्तुवृत्तिशंकायामन्यप्रमाणापेक्षयाऽनवस्थाऽवतार इति वक्तव्यम्, अर्थनियाज्ञानस्यार्थक्रियानुभवस्वभावत्वेनार्थक्रियामात्राणिनां भिन्नार्थक्रियात एतज्ज्ञानमुत्पन्नम्, उत तद्वयतिरेकेणेत्येवंभूतायाश्चिन्ताया निष्प्रयोजनत्वात् / तथा हि-यथार्थक्रिया किमवयवव्यतिरिक्तेनावयविनाऽर्थेन निष्पादिता, उताऽव्यतिरिक्तेन, पाहोस्विदुभयरूपेण, अथानुभयरूपेण, किं वा त्रिगुणात्मकेन, परमाणुसमूहात्मकेन वा, अथ ज्ञानरूपेण, आहोस्वित्संवृतिरूपेणेत्यादिचिन्ताऽर्थक्रियामात्राणिनां निष्प्रयोजना, निष्पन्नत्वाद्वाञ्छितफलस्य; तथेयमपि कि वस्तुसत्यामर्थक्रियायां तत्संवेदनज्ञानमुपजायते, आहोस्विदवस्तुसत्यामिति / तृड्दाहविच्छेदादिकं हि फलमभिवाच्छितम् , तच्चाभिनिष्पन्न, तद्वियोगज्ञानस्य स्वसंविदितस्योदये इति तच्चिन्ताया निष्फलत्वम् , अवस्तुनि ज्ञानद्वयाऽसम्भवात् च / --- प्र०-ऐसी शंका क्यों न हो कि अर्थक्रिया ज्ञान ही शायद असद् वस्तु का हुआ है, अब इस शंका के निवारण के लिए अन्य संवादक प्रमाण की अपेक्षा रहेगी, एवं इस प्रकार क्या अनवस्था का अवतार सुलभ नहीं? उ०:-ऐसा मत कहिये, क्योंकि अर्थक्रिया ज्ञान यह अर्थक्रिया अर्थात् कार्य का अनुभवस्वरूप है और जो पुरुष अर्थक्रिया मात्र का अर्थी है उसको 'यह ज्ञान किसी भिन्नअर्थक्रिया से उत्पन्न हुआ या अभिन्न अर्थक्रिया से हुआ' इस प्रकार की चिन्ता करना निष्प्रयोजन है-फिजुल है / उदाहरणार्थ, जलार्थी मनुष्य को दूर से 'यह जल है ऐसा लगता है' इस प्रकार ज्ञान हआ। अब वह पास में जाकर जल हाथ में लेता है तो उसे जल प्राप्ति रूप अर्थक्रिया का ज्ञान होता है / अब क्या वहाँ वह चिन्ता करेगा कि 'यह जो अब जलप्राप्ति स्वरूप अर्थक्रिया का ज्ञान हो रहा है यह सचमुच जल का ज्ञान है ? या किसी जल भिन्न पदार्थ का ज्ञान है ?' नहीं, ऐसी चिन्ता-शंका करने का कोई प्रयोजन नहीं, जब जल हाथ में ही आ गया / इसलिए मानना होगा कि अर्थक्रिया ज्ञान स्वानुभव स्वरूप होने से स्वतः प्रमाण रूप से ही प्रतीत होता है किन्तु इसमें 'यह मिथ्याज्ञान है या सत्य-यथार्थ ज्ञान है। ऐसी शंका को कोई अवसर ही नहीं जिससे पुनः उसके संवादक ज्ञान की अपेक्षा एवं तदनुसारी अनवस्था की आपत्ति हो। [ अर्थक्रिया के ऊपर शंका-कुशंका अनुपयोगी ] अर्थक्रिया ज्ञान स्वानुभवरूप होने से उसकी यथार्थता स्वसंविदित ही है ऐसा अगर नहीं मानेंगे तो कई प्रकार की फिजुल चिन्ता-शंका उपस्थित हो सकती है / उदाहरणार्थ (तथाहि-यथार्थक्रिया किमवयव.... ) जैसे कि यह अर्थक्रिया स्वरूप जलप्राप्ति जो हुई वह क्या अवयव जल से भिन्न किसी अवयवी से निष्पन्न हुई या सचमुच अवयवों से अभिन्न अवयवी जल से निष्पन्न जल प्राप्ति हुई अथवा अवयव-अवयवी उभयरूप जल से निष्पन्न हुई ? या दोनों से भिन्न अनुभय रूप किसी पदार्थ से निष्पन्न हुई ? अथवा जल-जलेतर कोई पदार्थ नहीं किन्तु वया सत्त्व-रजस्-तम इस त्रिगुणात्मक किसी पदार्थ से हुई ? या अलग जल अवयवी जैसा कोई पदार्थ नहीं किन्तु क्या परमाणु समूहात्मक जल से निष्पन्न जल प्राप्ति है ? अथवा बाह्य कोई पदार्थ ही सत् नहीं किन्तु क्या ज्ञानस्वरूप जल से निष्पन्न जलप्राप्ति रूप अथक्रिया है ? या आन्तर विज्ञान भी कोई
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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