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________________ 66 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 न च प्रथमस्यापि संवादापेक्षा मा भूदिति वक्तव्यम् , यतस्तस्य संवादजनकत्वमेव प्रामाण्यम् , तदभावे तस्य तदेव न स्यात / अर्थक्रियाज्ञानं तु साक्षादविसंवादि, अर्थक्रियालम्बनत्वात् , तस्य स्वविषये संवेदनमेव प्रामाण्यम् / तच्च स्वतःसिद्धमिति नान्यापेक्षा। तेन 'कस्यचित्तु यदीष्येत' [पृ. 26 ] इत्यादि परस्य प्रलापमात्रम् / देखा जाता है / ऐसा कहा भी है कि-'न हि अप्रत्यक्ष कार्ये कारणभावगति:, अर्थात् जब तक कार्य प्रत्यक्ष नहीं होता है तब तक कारण में कारणता का ज्ञान नहीं होता। इसलिये मानना होगा कि प्रमाण में संवादजनन शक्ति जानने के पहले संवाद रूप कार्य को देखना होगा, बाद में उस शक्ति का एवं तत्स्वरूप प्रामाण्य का ज्ञान होगा। इसके उपर अगर यह कहें-'हाँ ! आप संवाद से प्रामाण्य का ज्ञान कर लेंगे, किन्तु यह ज्ञातव्य है कि वह संवाद भी प्रमाणभूत ही उपयुक्त होगा और इसका प्रामाण्य इसमें ही हई तत्संवादजननशक्ति रूप है. वह भी उसके कार्य के संवाद दर्शन विना नहीं हो सकता। अगर संवाद की संवादजननशक्ति को ज्ञात करने के लिये उसके संवादरूप कार्य के दर्शन तक जायगे, तब तो इस प्रकार अनवस्था दोष की आपत्ति आयेगी, और इससे फलित यह हआ कि प्रामाण्य का ज्ञान ही नहीं हो सकेगा।'-इस प्रकार कहना ठीक नहीं है क्योंकि (संवादप्रत्ययस्य....) संवादक ज्ञान स्वयं संवाद स्वरूप होने से उसका प्रामाण्य निश्चित करने के लिये दूसरे संवादी ज्ञान की कोई अपेक्षा नहीं रहती, इसलिए यहां अनवस्था दोष की आपत्ति का अवतार ही नहीं है / इस पर आप पूछ सकते हैं [संवाद का प्रामाण्यवोध स्वतः मानने में कोई दोष नहीं है ] प्र०-तब तो पहले विज्ञान को भी संवाद की अपेक्षा मत हो, वह भी संवादक ज्ञान के समान स्वतः ही प्रमाणभूत होगा, एवं इसका प्रामाण्य स्वतः ही निर्णीत हो जायेगा। उ०-यह नहीं कह सकते, क्योंकि हम कह आये हैं कि विज्ञान का प्रामाण्य क्या है ? संवादजननशक्ति अर्थात् संवादजनकत्व यही उसका प्रामाण्य है। अगर उसमें भ्रांतिरूप होने से संवादजनकत्व नहीं है तब तो उसमें प्रामाण्य ही नहीं हो सकता, यह तो मूल ज्ञान की स्थिति है / अब संवाद को देखें तो समझा जाता है कि संवाद अर्थक्रियाज्ञान स्वरूप है, उदाहरणार्थ रास्ते पर दूर में देखा, बाद में वहाँ जा कर उसको हाथ में लिया तो ठीक रजत ही मालुम पड़ा, तो यह रजत ज्ञान संवादरूप हुआ, वही प्रथम प्रमाण ज्ञान से उत्पन्न होने के नाते उसका अर्थक्रिया ज्ञान है, और इस संवादज्ञान ज्ञान तो साक्षात् अविसंवादी है क्योंकि वह तो अर्थक्रियास्वरूप रजतप्राप्ति के आलंबन से उत्पन्न हुआ है इसलिये अब इसमें 'यह रजत ज्ञान प्रमाण होगा या नहीं ?' इस शंका को कोई अवसर ही नहीं है। सारांश संवादज्ञान स्वत प्रमाण है, उसका अपने विषय का संवेदन वही अपना प्रामाण्य है और संवाद का यह प्रामाण्य स्वतः सिद्ध है। उसमें और किसी की अपेक्षा नहीं है। (तेन कस्यचित्तु यदीष्येत....) इससे जो पहेले कहा गया था कि 'कस्यचित्तु यदीष्येत' इत्यादि, यह तो परवादी का प्रलाप मात्र है क्योंकि विज्ञान का प्रामाण्य संवादक ज्ञान से निश्चित होता है और संवादक ज्ञान यानी अर्थक्रिया ज्ञान का प्रामाण्य स्वतः ज्ञात है। इस पर परवादी कह - सकता है कि
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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