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________________ प्रथम खण्ड का०-१ प्रामाण्यवाद नाप्येतद्वक्तव्यम्-"तज्जनकानां स्वरूपमयथार्थोपलब्ध्या समधिगतम् , यथार्थत्वं तु पूर्वस्मात्कार्यावगतात्कारकस्वरूपादनिष्पद्यमानं किमिति गणाख्यं सामग्रयन्तरं न कल्पयति" / प्रक्रियाया विपर्ययेणापि कल्पयितु शक्यत्वात् / यतो न लोकः प्रायशो विपर्ययज्ञानात् स्वरूपस्थं कारणमप्यनुमिनोति किंतु सम्यग् ज्ञानात् / तथाविधे च कारकानुमानेऽशक्यप्रतिषेधा पूर्वोक्तप्रक्रिया / नापि तृतीयं यथार्थत्वाऽयथार्थत्वे विहाय कार्यमस्तीत्युक्तम् / अपि चार्थतथाभावप्रकाशनरूपं प्रामाण्यम / तस्य चक्षरादिकारणसामग्रीतो विज्ञानोत्पत्तावप्यनुत्पत्त्यभ्युपगमे विज्ञानस्य कि स्वरूपं भवद्भिरपरमभ्युपगम्यत इति वक्तव्यम् / न च तद्रूपव्यतिरेकेण विज्ञानस्वरूपं भवन्मतेन सम्भवति, येन प्रामाण्यं तत्र विज्ञानोत्पत्तावप्यनुत्पन्नमुत्तरकाल तत्रैवोत्पत्तिमदभ्युपगम्येत, भित्ताविव चित्रम् / गुणस्वरूप है। इसकी उपपत्ति इस प्रकार है-कामल ( नेत्रगोलक पर पित्त का आवरण ) आदि दोषों के न रहने पर. इन्द्रिय निर्मल कही जाती है। तात्पर्य, दोषों का अभाव यह इन्द्रियों का स्वरूप हो है। यदि कामल आदि दोष हो तभी इन्द्रिय दोषयुक्त कही जाती है, अन्यथा दोष के अभाव में इन्द्रिय गणयुक्त इन्द्रिय कर के नहीं है-मात्र इन्द्रिय है वैसा ही कहा जाता है / मिद्ध अर्थात् निद्रा का अथवा इसके तुल्य अन्य जडतादि दोषों का अभाव मन का शुद्ध स्वरूप है / निद्रा आदि का सद्भाव मन का दोष है। ज्ञान के विषय का निश्चल याने स्थिर भाव आदि यह स्वभाव है। परन्तु चंचल भाव आदि दोष है / क्योंकि वस्तु अतीव कम्पमान होती है तब उसका यथार्थबोध नहीं हो सकता। भूख आदि का अभाव यह प्रमाता यानी प्रमाण ज्ञान करने वाले आत्मा का स्वरूप है। परन्तु भूख आदि का सद्भाव दोष रूप है। कहा भी है "प्रमाणों की उत्पादक सामग्री इतनी ही होती है।" इसलिये प्रामाण्य जब उत्पन्न होता है तब अपने उत्पादक जो ज्ञानसामान्य के कारण हैं उनके अलावा गुणों को कारणरूप में अपेक्षा नहीं करता इसलिये प्रामाण्य स्वतः कहा जाता है / [ यथार्थत्व से गुणसामग्री कल्पना में प्रतिबन्दी ] यह भी आप नहीं कह सकते मात्र ज्ञान के उत्पादक कारणों का स्वरूप तो अयथार्थ ज्ञान से अनुमित हो जाता है, क्योंकि ज्ञान सामान्य की सामग्री अयथार्थ ज्ञान की जनक होती है। अगर कोई विशेष कारण ( गुण) इसमें प्रविष्ट हो जाय तब ज्ञान यथार्थ उत्पन्न होगा। इसलिये ज्ञान का यथार्थभाव अयथार्थापलब्धिरूप सामान्य कार्य से अनुमित कारणसमूहमात्र से उत्पन्न नहीं हो सकता। तब उसके लिये अर्थात् वह अपनी उत्पत्ति के लिये गुण नामक अन्य सामग्री का अनुमान क्यों नहीं करायेगा ? . ऐसा कहना इसलिये शक्य नहीं है कि-यहाँ इस प्रक्रिया को विपरीतरूप से होने की कल्पना भी कर सकते हैं / तात्पर्य यह है कि-गुणों के अनुमान के लिये जिस प्रक्रिया की आपने कल्पना की है उससे विपरीत रूपको भी प्रक्रिया का कहना की जा सकती है। यह इस प्रकार-जसे आपने ज्ञानसामान्य की सामग्रा से सहजरूप से अयथार्थ ज्ञान उत्पन्न होने की एवं गुणादि कारण विशेष के प्रहकार से यथार्थ ज्ञान उत्पन्न होने की प्रक्रिया को कल्पना की है, वैसे उसके विपरीतरूप में यह कहा
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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