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________________ प्रथमखण्ड-का० १-मुक्तिस्वरूपमीमांसा अथ स्वसन्तानवत्तिचित्तक्षणस्याऽजनकत्वेऽपि सन्तानान्तरवत्तियोगिज्ञानस्य जननान्नाशेषचित्तक्षणाऽवस्तुत्वप्रसक्तिः / ननु एवं रसादेरेककालस्य रूपादेरव्यभिचार्यनुमानं साश्रवचित्तसन्ताननिरोधलक्षणमुक्तिवादिनो बौद्धस्य न स्यात् , रूपादेरन्त्यक्षणवद् विजातीयकार्यजनकत्वेऽपि सजातीयकार्यानारम्भसंभवात् / एकसामग्र्यधीनत्वेन रूप-रसयोनियमेन कार्यद्वयारम्भकत्वेऽत्रापि कार्यद्वयारम्भकत्वं कि न स्यात् योगिज्ञानान्त्यक्षणयोरपि समानकारणसामग्रीजन्यत्वात ? कथमेकत्रानुपयोगिनश्चान्यत्रोपयोगश्चरमक्षणस्य? उपयोगे वा ज्ञानान्तरप्रत्यक्षवादिनोऽपि नैयायिकस्य स्वविषयज्ञानजननाऽसमर्थ- . स्यापि ज्ञानस्यार्थज्ञानजननसामर्थ्य कि न स्यात् ? तथा च नार्थचिन्तनमुत्सीदेव / अथ स्वसन्तानत्तिकार्यजननसामर्थ्यवद् भिन्नसन्तानवत्तिकार्यजननसामर्थ्यमपि नेष्यते, तहि सर्वथार्थक्रियासामर्थ्यरहितत्वेनान्त्यक्षणस्याऽवस्तुत्वप्रसक्तिः। तथाविधस्यापि वस्तुत्वे सर्वथाऽर्थक्रियारहितस्याऽक्षणिकस्यापि वस्तुत्वप्रसक्तिः / तथा च सत्त्वादयः क्षणिकत्वं न साधयेयुः अनैकान्तिकत्वात् / तस्मात् साश्रवचित्तसन्ताननिरोधलक्षणाऽपि मुक्तिविशेषगुणरहितात्मस्वरूपेवाऽनुपपन्ना। __ मुक्ति दशा में ज्ञानोत्पत्ति की सिद्धि में यह एक अनुमान प्रमाण है कि ज्ञान उत्तरज्ञान को उत्पन्न करने के स्वभाववाला है, जो जिसको उत्पन्न करने के स्वभाववाला होता है वह उसको उत्पन्न करने में पराधीन नहीं होता उदा० बीजादि अन्तिमकारणसामग्री अंकुर को उत्पन्न करने के स्वभाववाली होती है तो वह अंकुर को उत्पन्न करने में पराधीन नहीं होती, पूर्वज्ञानक्षण भी उत्तरज्ञान को उत्पन्न करने के स्वभाववाला होता है / यह स्वभावहेतुक अनुमान प्रयोग है / यदि ज्ञान उत्तरक्षण में ज्ञान को उत्पन्न न करेगा तो उसके उत्तरज्ञानोत्पादनस्वभाव का ही भंग हो जायेगा। "संसारदशा के अन्तिमक्षण के ज्ञान में उत्तरज्ञानजनकता असिद्ध है" ऐसा नहीं माना जा सकता, क्योंकि वैसा मानने पर पूरे ज्ञानसन्तान में अवस्तुत्व की आपत्ति होगी। वह इस प्रकारः-सत्त्व सत्ताजातिसम्बन्धरूप होने का प्रतिषेध किया गया है अतः अर्थक्रियाकारित्वरूप सत्त्व ही मानना होगा। यदि अन्तिमज्ञानक्षण को उत्तरज्ञानजनक नहीं मानेंगे तो उसमें अर्थक्रियाकारित्व न घटने से उसका असत्त्व फलित होगा। चरमज्ञानक्षण का असत्त्व होने पर उपान्त्य ज्ञानक्षण मे अर्थक्रियाकारित्व न घटने से उसके सत्त्व की प्रसक्ति होगी। इस प्रकार पूर्वपूर्वज्ञानक्षण में असत्त्व प्रसक्त होने से पूरे ज्ञानसन्तान के असत्त्व की आपत्ति आयेगी। . [ साश्रवचित्तसन्ताननिरोध मुक्ति का स्वरूप नहीं है ] यहाँ बौद्धवादी कहते हैं कि-अन्तिमज्ञानक्षण अपने सन्तान में उत्तरज्ञान को उत्पन्न न करे तो भी उसमें असत्त्व को आपत्ति नहीं है क्योंकि अन्य योगी के सन्तान में योगीज्ञानात्मक उत्तरज्ञान को उत्पन्न करने से ही वह सार्थक है-किन्तु यह ठीक नहीं। कारण, साश्रवचित्तसन्ततिनिरोधस्वरूप मक्ति दिखाने वाले बौद्ध के मत में भी समानकालीन रसादि से रूपादि का अभ्रान्त अनुमान होता है वह नहीं हो सकेगा / आशय यह है-रूप और रस दोनों अपने सन्तान में क्रमश: रूप और रस के उत्पादक होते हैं और परसन्तान में सहकारी रूप से क्रमशः रस और रूप के जनक होते हैं / अर्थात् रूप का सजातीय कार्य रूप है और विजातीय कार्य रस है / इसलिये रस को हेतु कर के समानकालीनरूप का अनुमान किया जाता है। किन्तु बौद्धवादी के कथनानुसार अन्तिमज्ञानक्षण की तरह विजातीयकार्योत्पत्ति के होने पर भी यदि सजातीयकार्योत्पत्ति न मानी जाय तो यह सम्भव है कि रूप से रससन्तान में रस
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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