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________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे पूर्वपक्षः 411 (2) द्वितीयं तु तनुभुवनकरणोपादानानि (चेतनाऽचेतनानि)* चेतनाधिष्ठितानि स्वकार्यमारभन्त इति प्रतिजानीमहे, रूपादिमत्त्वात् / यद् यद् रूपादिमत् तत् तत् चेतनाधिष्ठितं स्वकार्यमारभते यथा तन्त्वादि, रूपादिमच्च तनु-भुवन-करणादिकारणम् , तस्माच्चेतनाधिष्ठितं स्वकार्यमारभते / योऽसौ चेतनस्तनु-भुवनकरणोपादानादेरधिष्ठाता स भगवानीश्वरः इति / उद्द्योतकरस्तु प्रमाणयति-भवनहेतवः प्रधान-परमाण्वदृष्टाः स्वकार्योत्पत्तावतिशयबुद्धिमन्तमधिष्ठातारमपेक्षन्ते, स्थित्वा प्रवृत्तेः, तन्तुतुर्यादिवत् / [ न्या. वा. 4-1-21 ] इति / [प्रथम अनुमान के पक्षादि का विश्लेषण ] यहाँ सामान्य रूप से इन्द्रियद्वयग्राह्य और अग्राह्य में ही यदि बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्व सिद्ध किया जाय तो वहाँ सिद्धसाध्यता दोष प्रसक्त होगा क्योंकि घटादि में वादी-प्रतिवादी दोनों के मत से साध्य सिद्ध होने से कोई विवाद ही नहीं रहेगा। तदुपरांत, अपने ही सिद्धान्त का बाध भी होगा क्योंकि अग्राह्य जो अणु-आकाशादि हैं उनमें न्यायमत से बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्व स्वीकृत ही नहीं है क्योंकि वे नित्य हैं, अतः प्रत्यक्षादि प्रमाण से बाधादि होंगे। इन दोषों के निवारणार्थ यहाँ 'विमत्यधिकरणभावापन्न' विशेषण लगाया है। उसका अर्थ:-विविध मति विमति अर्थात् विप्रतिपत्ति / उसके अधिकरणभाव को प्राप्त हो, तात्पर्य कि जो विवादास्पदीभूत हो। अणु-आकाशादि में कोई विवाद नहीं है अत: उक्त कोई दोष निरवकाश है, केवल देह-इन्द्रिय और भूवनादि पदार्थ ही यहाँ पक्षरूप से अभिप्रेत हैं-यह उक्त विशेषण का फल है / ___केवल कारणमात्रपूर्वकत्व को साध्य करे तो देहादि के दृष्ट कारण से ही सिद्धसाध्यता न हो इसलिये बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्व साध्य किया है। यहाँ बुद्धिरूपकारणपूर्वक ऐसा न कहकर बुद्धिमत्कारण पूर्वक ऐसा मतुपप्रत्ययार्थ गभित साध्य किया है जो सांख्यमत में सिद्ध न होने से सिद्धसाध्यता दोष नहीं होने देता है। सांख्यवादी प्रधान (=प्रकृति) को सारे कार्यों का कारण मानते हैं किन्तु वह प्रधानतत्त्व बुद्धिमत् पदार्थ नहीं है, क्योंकि बुद्धि उसके मत से प्रधान से अभिन्न कही जाती है, जो वस्तु जिससे अभिन्न हो वह उससे ही तद्वान् नहीं कहीं जाती। अपने आरम्भक अवयवों का प्रचयात्मक संयोग यही संनिवेश है, उससे विशिष्ट यानी व्यवच्छिन्न ( अर्थात् तथाविधसंनिवेश वाला ), उसको भाव अर्थ में त्वप्रत्यय लगा है। यह हेतु है। यदि 'स्वारम्भक' ऐसा न कहें तो सामानाधिकरण्य होने के कारण अवयवसंनिवेशविशिष्टता गोत्वादि में भी है और वहाँ साध्य नहीं है अत: हेतु व्यभिचारी बन जायेगा, इस व्यभिचार के निवारणार्थ 'स्वारम्भक' विशेषण लगाना होगा। गोत्वादि यद्यपि द्रव्यारम्भक अवयव संनिवेश से विशिष्ट है किन्तु नित्य होने से उसके अपने कोई आरम्भक अवयव ही नहीं है, अतः स्वावयवारम्भक संनिवेशविशिष्टता हेतु वहाँ से निवृत्त हो जाने पर व्यभिचार निरवकाश है / इस प्रकार निर्दोष हेतु से जो बुद्धिमान् सिद्ध होगा वही ईश्वर है। यह एक प्रमाण हुआ। [अविद्धकर्ण का दूसरा अनुमान ] (2) दूसरा प्रमाण-"शरीर, भुवन और करण (इन्द्रियादि) के उपादानभूत परमाणु आदि * 'चेतनाऽचेतनानि' इति पाठः तत्त्वसंग्रह श्लो० 46 पंजिकायां प्रमेयकमलमार्तण्डे चोद्धृतपाठेऽपि नोपात्तः, बहषु चाऽदर्शषु नास्ति, एकस्मिंश्च सन्नपि छिन्नः, ततश्चाधिक इव प्रतिभाति /
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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