________________ प्रथमखण्ड-का० १-नित्यसुखसिद्धिवादे उ० 623 न च ध्वस्तस्यापि प्रदीपस्य विकारान्तरेण स्थित्यभ्युपगमे प्रत्यक्षबाधा, वारिस्थे तेजसि भास्वररूपाभ्युपगमेऽपि तद्बाधोपपत्तेः / अथोष्णस्पर्शस्य भास्वररूपाधिकरणतेजोद्रव्याभावेऽसम्भवादनुभूतस्य तत्र परिकल्पनमनुमानतः, तर्हि प्रदीपादेरप्यनुपादानोत्पत्तिवत् न सन्ततिविपत्त्य भावमन्तरेण विपत्तिः सम्भवतीत्यनुमानतः किं न कल्प्यते तत्सन्तत्यनुच्छेदः ? अन्यथा सन्तानचरमक्षणस्य क्षणान्तराजनकत्वेनाऽसत्त्वे पूर्वपूर्वक्षणानामपि तत्त्वान्न विवक्षितक्षरणस्यापि सत्त्वमिति प्रदीपादेदृष्टान्तस्य बुद्धयादिसाध्यमिणश्चाभाव इति नानुमानप्रवृत्तिः स्यात् / तस्मात् शब्द-बुद्धि-प्रदीपादीनामपि सत्त्वे नात्यन्तिको व्युच्छेदोऽभ्युपगन्तव्यः, अन्यथा विवक्षितक्षणेऽपि सत्त्वाभावः / इति सर्वत्रात्यन्तानुच्छेदवत्येव सन्तानत्वलक्षणो हेतुर्वर्त्तत इति कथं न विरुद्धः ? विपरीतार्थोपस्थापकस्यानुमानान्तरस्य सद्भावादनुमानबाधितः पक्षः, हेतोर्वा कालात्ययापदिष्टत्वम् / यथा चानुमानस्य पक्षबाधकत्वम् अनुमानबाधितपक्षनिर्देशानन्तरं प्रयुक्तत्वेन हेतो कालात्ययापदिष्टत्वं तथाऽसकृत प्रतिपादितमिति न पुनरुच्यते / अथ किं तदनुमानं प्रकृतप्रतिज्ञायाः बाधकं येनात्रायमुक्तदोषः स्यात? उच्यते होने पर भी) अत्यन्त ( =सर्वथा ) उच्छेद नहीं होता जैसे कि शब्द, बुद्धि और प्रदीप का सन्तान / यह हम आगे दिखाने वाले हैं कि अर्थक्रियाकारित्वरूप सत्त्व का लक्षण जैसे एकान्तनित्य पदार्थों में नहीं घटता, वैसे एकान्त अनित्य पदार्थों में भी नहीं घटता है। प्रदीपादि का उत्तरकालीन परिणाम प्रत्यक्ष नहीं दिखता है इतने मात्र से 'वे नहीं है' ऐसी स्थापना शक्य नहीं / अन्यथा यह आपत्ति होगी कि पारिमाण्डल्य (=अणुपरिमाण) गुण के आधाररूप में परमाणुओं का प्रत्यक्ष नहीं होता तो उन का भी असत्त्व हो मानना पड़ेगा / अगर कहें कि-अनुमान से अणुपरिमाण के आधाररूप में परमाणु सिद्ध हैं अतः उनके असत्त्व की आपत्ति का दोष निरवकाश है-तो प्रस्तुत में प्रदीपादि का भी उत्तरकालीन सत्त्व अनुमानसिद्ध होने से असत्त्वापत्ति दोष की निरवकाशता तुल्य है / दोनों जगह अनुमान से सिद्धि इस प्रकार हैं-अन्य सूक्ष्म अवयवात्मक कारणों के विना स्थूल अवयवी कार्य का भान होना सम्भव नहीं है अत: चरम सुक्ष्म अवयवात्मक कारण के रूप में परमाण स्थिति का दर्शन उसर्क पूर्वापरकोटि में स्थिति के विना सम्भव नहीं है, अत: प्रदीपादि का भी अप्रकाशकाल में पूर्वापर सत्त्व सिद्ध होता है-यह आगे दिखाया जायेगा। [सन्तानत्व हेतु में विरोध दोष का समर्थन ] बुझे हुए प्रदीप का अन्य विकाररूप से (यानी अन्धकार द्रव्यात्मकपरिणामरूप से) अवस्थान मानने में प्रत्यक्षबाध जैसा कुछ नहीं है। यदि यहाँ प्रत्यक्ष बाध मानेंगे तो उष्णजलान्तर्वर्ती अग्नि की भास्वररूपवत्ता मानने में भी प्रत्यक्ष बाध मानना पड़ेगा। यदि कहें कि-'भास्वररूपाधिकरणभूत अग्निद्रव्य के अभाव में, जल में उष्ण स्पर्श का सम्भव नहीं है अत: अनुमान से वहाँ अनुभूत भास्वररूप की कल्पना अनिवार्य है'-तो प्रस्तुत में यह कह सकते हैं कि उपादान के विना जसे अग्नि की उत्पत्ति सम्भव न होने से उपादान की कल्पना की जाती है, उसी तरह सन्तान का नैरन्तर्य न रहने पर उसका ध्वंस भी सम्भव नहीं है तो फिर अनुमान से प्रदीपादि के सन्ततभाव की कल्पना भी क्यों न की जाय? ! यदि आप प्रदीप सन्तान के अन्तिम क्षण को ऐसे ही ( नये विकार के जन्म के विना) ध्वस्त मान लेंगे तो उस में क्षणान्तरजनकत्व ( रूप अर्थक्रियाकारित्व ) के न रहने से सत्त्व