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________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वर० उत्तरपक्ष: 579 तत्साधनाद् न व्यभिचारः' इत्येकशाखाप्रभवत्वानुमानेऽपि समानम् / प्रत्यक्षबाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेन कालात्ययापदिष्टत्वमुभयत्र तुल्यम् / तन्न सक्रियत्वमात्मनो रूपादिमन्मूतित्वं साधयतीति व्यवस्थितम् / अथ सक्रियत्वे तस्याऽनित्यत्वम् / तथाहि-'यत् सक्रियं तदनित्यम् यथा लोष्टादि, तथा चात्मा, तस्मादनित्य' इति, एतदपि न सम्यक् , परमाणुभिरनैकान्तिकत्वात् कथंचिदनित्यत्वस्येष्टत्वात् सिद्धसाधनं च / सर्वात्मनाऽनित्यत्वस्य लोष्टादावष्यसिद्धत्वात् साध्यविकलता दृष्टान्तस्य / तन्न सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वमात्मनः सिद्धम् / अपरे सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वमात्मनोऽतोऽनुमानात् साधयन्ति-"देवदत्तोपकरणभूतानि मणिमुक्ताफलादीनि द्वोपान्तरसंभूतानि देवदत्तगुणकृतानि, कार्य वे सति देवदत्तोपकारकत्वात् , शकटादिवत् / न च तद्देशेऽसन्निहिता एव तद्गुणास्तान् व्युत्पादयितु क्षमाः / प्रात्मगुणानां च तद्देशसन्निधानं न तद्गुणिसन्निधिमन्तरेण संभवि, प्रगुणत्वप्राप्तेः, ततस्तस्यापि तद्देशस्वम्"-असदेतत् तत्कार्यत्वेऽपि तेषां न "अवश्यतया कार्यदेशसन्निधिमद् निमित्तकारणम्" इति नियम उपलब्धिगोचरः, कारणभूत होता है जैसे आत्मा / आत्मा शरीरादि से भिन्न है और हर कोई ज्ञान में कारण है यह तो नैयायिक भी मानता है, मन भी ऐसा है अतः रूपादिशून्य होना चाहिये / [ सक्रियता के द्वारा मूर्त्तत्व की सिद्धि दुष्कर ] यह भी सोचिये कि रूपादिममूर्त्यभाव के साथ सक्रियता को क्या विरोध है ? कुछ नहीं, तो फिर सक्रियता की निवृत्ति से निवृत्त होने वाले रूपादिमत् मूत्ति-अभाव से आत्मा में रूपादिमत्तास्वरूपमतता की सिद्धि भी कैसे हो सकती है ? यह नहीं कह सकते कि-रूपादिमतमत्ति का अभाव जहाँ आकाश में सिद्ध है वहाँ सक्रियता नहीं है इसलिये उन दोनों का विरोध सिद्ध हो जायेगा क्योंकि यदि अन्यत्र विपक्ष में हेतु के अदर्शनमात्र से विरोधसिद्धि मानेगे तो एकशाखाप्रभवत्व हेतु भी अन्यत्र विपक्ष में अर्थात् तथाविधरूपादिसाध्यशून्य (अन्यशाखाजन्य ) फलादि में नहीं रहता है, तो वहाँ भी तथाविधरूपादि अभाव के साथ एकशाखाप्रभवत्व हेतु का विरोध सिद्ध हो जायेगा / यदि ऐसा कहें कि-एकशाखाप्रभवत्व हेतु का तथाविधरूपादिशून्य उसी शाखा के फल में व्यभिचार देखा जाता है अतः वहाँ विरोधसिद्धि नहीं होगी।-तो उसी तरह सक्रियत्व के लिये व्यभिचार की बात यहाँ भी समान है। पक्षभूत आत्मा में रूपादिमत्मूत्ति का अभाव है और वहाँ सक्रियत्व दिखता है। अर्थात वह उसका विरोधी सिद्ध नहीं हुआ। यदि कहें कि-हम सक्रियता से ही वहाँ रूपादिमत्मृत्ति की सिद्धि करेंगे अत: व्यभिचार नहीं होगा-तो ऐसा एकशाखाप्रभवत्व हेतुक अनुमान में भी समानरूप से कहा जा सकता है कि हम भी वहाँ तथाविधरूपादि की एकशाखाप्रभवत्व हेतु के बल से सिद्धि मानेंगे अत: व्यभिचार नहीं हो सकेगा। कदाचित् आप ऐसा कहें कि वहाँ पक्षभूत फल में अन्य प्रकार के रूपादि दिखते हैं अतः तथाविधरूपादि की सिद्धि करने जायेंगे तो हेतु कालात्ययापदिष्ट बाधित हो जायेगा-तो ऐसा प्रस्तुत में भी कह सकते हैं कि आत्मा में रूपादिमत् मूत्ति का अभाव सिद्ध होने से, यदि रूपादिमतमत्ति को सिद्ध करने जायेंगे तो हेतु बाधित हो जायेगा। निष्कर्ष यह फलित हआ कि आत्मा में सक्रियता मानने पर भी रूपादिममूर्तता की सिद्धि नहीं की जा सकती है।
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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