________________ 216 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 त्वमेव' इति चेत् ? तदनुपलब्धिरेवास्तु कथमविद्यमानम् ? न ह्यन्यस्याभावेऽन्यस्याप्यभावः, अतिप्रसगात् / 'तस्यासावविद्यमानत्वेन प्रतिभाति' इति चेत ? स तहि भ्रान्तः, असद्विकल्पसम्भवात तस्याऽसद्विकल्पस्य विषयीकरणात् सर्वज्ञोऽपि भ्रान्त एवेति कथं सर्ववित् ? . ___अथ विकल्पस्यापि स्वरूपेऽभ्रान्तत्वमेव, तेन तस्य वेदनं सर्वज्ञज्ञानमभ्रान्तम् / एवं तहि स्वरूपसाक्षात्करणमेव केवलं, कथमतीताद्यविद्यमानसाक्षात्करणम् ? ततश्चातीतानागतपदार्थाभावात् तत्सा. क्षात्करणाऽसंभवान्न तद्ग्रहणात् सर्वज्ञः / किं च स्वरूपमात्रवेदने तन्मात्रस्यैव विद्यमानत्वात् तद्वेदनेऽद्वैतवेदनाद् न सर्वज्ञव्यवहार, तद्भावे वा सर्वः सर्ववित् स्यात् / अथापि स्यात् सत्यस्वप्नदर्शनवदतीतानागतादिदर्शन, ततो व्यवहार इति / तदप्ययुक्तम् . सत्यस्वप्नदर्शनस्य स्वरूपमात्रवेदने न सत्याऽसत्यविभागः किन्त्वानुमानिकः सत्यस्वप्नस्वरूपसंवेदनस्य तन्मात्रपर्यवसितत्वात / मानते हैं तो समाधि उसी का नाम है जिसमें सर्व विकल्प शान्त हो जाते हैं अतः समाधिमग्न सर्वज्ञ चित्त में विकल्पों की संभावना ही नहीं है। जब विकल्पों का संभव नहीं है तो वचन प्रयोग की सभावना की तो बात ही कहां? क्योंकि चित्त में विकल्पजन्म विना वचन प्रयोग संभव नहीं होता। . यदि आप सर्वज्ञ को वक्ता मानेंगे तो उसके चित्त में विकल्प भी अवश्य होगा ही जो समाधिभाव का पूरा विरोधी है-फलतः आपका सर्वज्ञ समाधिरहित हो जायेगा। तात्पर्य, आपका वह सर्वज्ञ समाधिशून्य होने से छानस्थिक यानी आवृत अवस्था में होने वाले ज्ञान का आश्रय हो जायेगा जो ज्ञान प्रायः भ्रमात्मक ही होता है। तथा यह भी प्रश्न है कि जब अतीतादि पदार्थ नष्ट-अजात होने से उसका कोई स्वरूप ही बच नहीं पाया है तो फिर उन अतीत और भावि पदार्थों का ज्ञान ही कैसे होगा? यदि अतीत आदि के वर्तमान में असद् ही आकार का वेदन मानेंगे तो तिमिर दोषग्रस्त नेत्र वालें का ज्ञान जैसे विपरीत होने से प्रमाणभूत नहीं होता उसी प्रकार यह सर्वज्ञज्ञान भी प्रमाण नहीं होगा। यदि कहा जाय कि अतीतादि भी विद्यमान हैं-तब तो वह वर्तमानरूप हो जाने से अतीत जैसा कुछ रह तो अब अतीत-अनागत का ज्ञाता भी न रहने से सर्वज्ञ का व्यवहार भी उच्छिन्न हो जायेगा। यदि कहें कि अतीतादि विद्यमान होने पर भी उस वक्त प्रतिपाद्यरूप की अपेक्षा विद्यमान न होने से उसका अभाव भी होता है'-तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि जो विद्यमान होता है वह किसी भी अपेक्षा से उस काल में अविद्यमान नहीं हो सकता। यह नहीं कह सकते कि "उस वक्त उसकी उपलब्धि न होने से वह अविद्यमान है" क्योंकि जिस की उपलब्धि नहीं होती उसको अनुपलब्ध ही माना जाय, अविद्यमान भी मानने की क्या जरूर? एक वस्तु का अभाव होने पर कहीं भी दूसरी वस्तु के अभाव का व्यवहार नहीं हो सकता / अन्यथा अतिप्रसंग यह होगा कि घट न होने पर पट के अभाव का व्यवहार किया जायेगा। यह भी नहीं कह सकते कि "सर्वज्ञ को वह अतीतादि पदार्थ अविद्यमानरूप में ही भासित होता है-विद्यमानरूप से नहीं। किन्तु सर्वथा उसका भान नहीं होता ऐसा नहीं है"-यह इसलिये नहीं कह सकते कि अविद्यमान वस्तु को ग्रहण करने वाला सर्वज्ञ भ्रान्त हो जायेगा, क्योंकि असत् वस्तु का भी (भ्रमात्मक) विकल्पज्ञान होता है तो अतीतादि को अमद् विकल्प का विषय करने से वह सर्वज्ञ भ्रान्त ही हो गया, फिर तो वह सर्वज्ञ भी कैसे रहा ? [ स्वरूपमात्र के प्रत्यक्ष से सर्वज्ञता का असंभव ] यदि यह कहा जाय कि-'विकल्पज्ञान भी स्वस्वरूप के संवेदन में अभ्रान्त ही होता है, विषय