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________________ 408 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथ कार्यस्य बहुत्व-महत्त्वाभ्यां बहवो बुद्धिमन्तः कर्तारो भवन्तु, न त्वेकः सर्वज्ञः सर्वशक्तियुक्तः / नन्वेतस्मिन्नपि पक्षे ईश्वरानेकत्वप्रसंगः / 'भवतु, को दोषः' ? व्याहतकामानां स्वतन्त्राणामेकस्मिन्नर्थे प्रवृत्तिः। अथ तन्मध्येऽन्येषामेकायत्तता, तदा स एवेश्वरः, अन्ये पुनस्तदधीना अनीश्वराः / अथ स्थपत्यादीनां महाप्रासादादिकरणे यथैकमत्यं तद्वदत्रापि / नैतदेवम् , तत्र कस्यचिदभिप्रायेण नियमितानामैकमत्यम् , न त्वत्र बहूनां नियामकः कश्चिदस्ति, सद्भावे वा स एवेश्वरः / एवं यस्य यस्य विशेषस्य साधनाय वा निराकृतये वा प्रमाणमुच्यते तस्य तस्य पूर्वोक्तेन न्यायेन निराकरणं कर्त्तव्यम् / तन्न विशेषविरुद्धता ईश्वरसाधकस्य / शंकाः-हो जाने दो, हमारा क्या बिगडैगा ? उत्तरः-तब तो ईश्वर ही सिद्ध नहीं होगा तो आप किस व्यक्ति में कृत्रिमज्ञानसम्बन्ध विशेष की सिद्धि कर रहे हो ? ! शंकाः-युगपत् (एक साथ) कार्यों की उत्पत्ति अन्यथा न घट सकने के कारण, ईश्वर में प्रतिनियतार्थविषयक अनेक बुद्धि को ही क्यों नहीं मान लेते ? उत्तर:-यहाँ विकल्पद्वय का निराकरण नहीं हो सकेगा / जैसे, उन अनेक बुद्धियों का होना सन्तान से यानी क्रमिक मानेंगे या एक साथ ही ? पहले विकल्प में तो फिर से एक साथ कार्यों की अनुत्पत्ति का दोष प्रसंग आयेगा / एक साथ सकल बुद्धि की उपत्ति मानेंगे तो उत्पत्ति के लिये शरीरयोग भी मानना पड़ेगा और शरीरादियोग का तो पूर्वग्रन्थ में निराकरण हो चुका है। [ अनेक बुद्धिमान् कर्ता मानने में आपत्ति ] शंकाः-यदि बडे बडे अनेक कार्यों की एक साथ उपत्ति करना है तो एक सर्वशक्तिमान् सर्वज्ञ की कल्पन क्यों करते हो, अनेक बुद्धिमान कर्ता को मान लो। उत्तरः- ऐसा मानने में तो अनेक ईश्वर मानने की आपत्ति है। . शंका:-अनेक ईश्वर को मान लिजीये ! क्या आपत्ति है ? उत्तरः-वे यदि स्वतन्त्र होंगे तो परस्पर विरुद्ध ईच्छा प्रगट होने पर एक बड़े कार्य में प्रवृत्ति ही नहीं करेंगे / यदि उनमें से कोई एक, दूसरों को स्वाधीन रखेगा तब तो वही ईश्वर हुआ, शेष सब तो उनके पराधीन होने से ईश्वर नहीं हुए। शंका:-जैसे शिल्पी आदि अनेक मिल कर बडे राजभवन के निर्माण में एकमत हो कर कार्य करते हैं, वैसे यहाँ भी होगा। उत्तरः-ऐसा नहीं है, वहाँ तो किसी एक नपादि के अभिप्राय से वे सब नियन्त्रित हो कर एक अभिप्राय वाले होते हैं, यहाँ अनेक ईश्वर का कोई नियामक तो है नहीं, यदि 'है' ऐसा माना जाय तब तो वही मुख्य ईश्वर हुआ। उपरोक्त रीति से, अनीश्वरवादी की ओर से जिस जिस विशेष का आपादन या निराकरण करने के लिये प्रमाण दिया जाय उन सभी का पूर्वोक्त युक्ति से ही निराकरण समझना चाहिये / निष्कर्षः-ईश्वरसाधक किसी भी हेतु में विशेषविरुद्धता दोष को अवकाश नहीं है। .
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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