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________________ 42 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 ये त्वाः-'उत्तरकालभाविनः संवादप्रत्ययान्न जन्म प्रतिपद्यते शक्तिलक्षणं प्रामाण्यमिति स्वत उच्यते, न पुनर्विज्ञानकारणान्नोपजायत इति' ।-तेऽपि न सम्यक् प्रचक्षते, सिद्धसाध्यतादोषात् / . अप्रामाण्यमपि चैवं स्वतः स्यात् / न हि तदप्युत्पन्ने ज्ञाने विसंवादप्रत्ययादुत्तरकालभाविनः तत्रोत्पद्यते इति कस्यचिदभ्युपगमः। यदा च गुणवत्कारणजन्यता प्रामाण्यस्य शक्तिरूपस्य प्राक्तनन्यायादवस्थिता, तदा कथमौत्सगिकत्वम, तस्य दुष्टकारणप्रभवेषु मिथ्याप्रत्ययेष्वभावात् / परस्परव्यवच्छेदरूपाणामेकत्राऽसंभवात् / तस्माद् "गुणेभ्यो दोषाणामभावस्तदभावादप्रामाण्यद्वयाऽसत्त्वेनोत्सर्गोऽनपोहित एवास्ते"-[ द्रष्टव्य-श्लो० वा० 2-65 ] इति वचः परिफल्गुप्रायम् / व्यतिरेक-अव्यतिरेक को व्यतिरेक सहित अव्य तिरेक नहीं किंतु एक विजातीय सम्बन्धविशेष रूप माना जाय तो यह प्रश्न होगा कि यह विजातीय सम्बन्ध उसके आश्रय से भिन्न है या अभिन्न ? इसके लिये भी अगर विजातीय सम्बन्ध माना जाय तो इस रीति से अनवस्था दोष की आपत्ति होगी। अगर व्यतिरेकसहित अव्यतिरेकरूप सम्बन्ध माना जायगा तो उभयपक्षोक्त दोष सहज आपन्न होगा। जब तक इन दोषों का परिहार न किया जाय तब तक शक्ति और भावों का भेदाभेद है इस पक्ष की घोषणा नहीं करनी चाहिये। ( अनुभयपक्षस्तु.... ) इस विषय में जो अनुभय पक्ष है अर्थात् भेद और अभेद का निषेधरूप पक्ष है वह भी युक्त नहीं है / इस पक्ष के अनुसार आश्रय के साथ शक्ति का भेद भी नहीं है और अभेद भी नहीं है / तात्पर्य, शक्ति अपने आश्रय से न भिन्न है, न अभिन्न है इस प्रकार का अनुभय पक्ष युक्त नहीं है। क्योंकि एक दूसरे को छोड कर रहने के स्वभाव वाले जो पदार्थ होते हैं, उदाहरणार्थ प्रकाश और अन्धकार, वहाँ यदि एक का निषेध हो तो दूसरे का विधान अवश्य होता है। भेद और अभेद परस्पर को छोड कर रहने के स्वभाव वाले हैं, यदि भेद है तो अभेद या भेदाभाव नहीं हो सकता / यदि भेद नहीं है तो अभेद का विधान हो जाता है। इसलिये जिसका विधान किया जाता है, उसका निषेध नहीं किया जा सकता। क्योंकि एक ही पदार्थ के सम्बन्ध में विधान और निषेध इन दोनों का विरोध है, इसलिये अनुभयपक्ष युक्त नहीं है। [ उत्तरकालोन संवादी ज्ञान से अनुत्पत्ति में सिद्धसाधन ] जो लोग कहते हैं-"शक्तिरूप प्रामाण्य उत्तरकाल भावि संवादी ज्ञान से उत्पन्न नहीं होता है, इसी कारण प्रामाप्य को स्वतः कहा जाता है, नहीं कि विज्ञान के कारणों से प्रामाण्य उत्पन्न नहीं होता है इसलिये।"-उन लोगों का यह कथन भी युक्त नहीं है। क्योंकि इस कथन में सिद्ध-साध्यता का दोष आता है / कारण, प्रामाण्य के स्वतस्त्व का यह स्वरूप प्रतिवादी भी मानता है। वे भी कहते हैं कि उत्तरभावी संवादी ज्ञान से उत्पन्न नहीं होता है अब ऐसा मानने वाले प्रतिवादी के सामने यही सिद्ध करने का प्रयास करना यह सिद्धसाध्यतारूप दोष है / ( अप्रामाण्यमपि.... ) इसके अतिरिक्त यदि इसी रीति से यानी संवादी ज्ञान से उत्पन्न न होने के कारण प्रामाण्य को स्वतः कहा जायेगा तो अप्रामाण्य को भी स्वत: मानना पड़ेगा क्योंकि वह भी उत्तरकालभावी बाधकज्ञान से उत्पन्न नहीं होता / अप्रामाण्य के विषय में भी 'पहले ज्ञान उत्पन्न होता है, बाद में उसमें उत्तरकालभावी बाधक यानी विसंवादी ज्ञान से अप्रामाण्य उत्पन्न होता है' इस प्रकार कोई मानता नहीं है। (यदा च गुण.....) फिर जब पहले कहे हेतु के द्वारा शक्तिरूप प्रामाण्य गुणवान कारणों से जन्य सिद्ध हो चुका है तब उसको औत्सगिक अर्थात् उत्सर्ग से ज्ञानसामान्य से उत्पन्न कैसे कहा जा
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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