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________________ प्रथमखण्ड-का. १-सर्वज्ञवाद: 205 अथ किचिज्ज्ञत्व-रागादिमत्त्वसद्भावेऽपि स्वात्मनि न त तुकं तक्तृत्वं प्रतिपन्नम् किंतु वक्तुकामताहेतुकम् , रागादिसद्भावेऽपि वक्तुकामताऽभावेऽभावाद्वचनस्य / नम्वेवं व्यभिचारे विवक्षापि न वचने निमित्तं स्यात् तत्राप्यन्यविवक्षायाममन्यशब्ददर्शनात, अन्यथा गोत्रस्खलनादेरभावप्रसंगात् / अथार्थविवक्षाव्यभिचारेऽपि शब्दविवक्षायामव्यभिचारः / न, स्वप्नावस्थायामन्यगतचित्तस्य वा शब्दविवक्षाऽभावेऽपि वक्तृत्वसंवेदनात् न च व्यवहिता विवक्षा तस्य निमित्तमिति परिहारः, एवमभ्युपगमे प्रतिनियतकार्यकारणभावाभावप्रसंगात सर्वस्य तत्प्राप्तेः। तन्न वक्तुकामतानिमित्तमप्येकान्ततो वचनं सिद्धम् , व्यतिरेकाऽसिद्धेः। अन्वयस्तु किचिज्ज्ञत्वेन रागादिमत्वेन वा वचनस्य सिद्धो, न वक्तुकामतया। यदि यह कहा जाय कि-'अग्नि के सद्भाव में ही धूम होता है और अग्नि के अभाव में यही धुम नहीं ही होता है अग्नि-धुम का कारण-कार्य भाव है और प्रत्यक्ष एवं अनुपलम्भ ही उस कारणकार्य भाव का ग्राहक प्रमाण है / तात्पर्य, अग्नि होने पर धूम का प्रत्यक्ष और अग्नि के अभाव में धूम का अनुपलम्भ उन दोनों के बीच कारण-कार्यभाव का उपलम्भक है।'-तो यह कुछ ठीक है किन्तु वक्तृत्व के लिये भी समान है जैसे -अल्पज्ञता अथवा तो उसका व्यापक रागादिमत्त्व जब होता है तभी तृत्व होता है यह अपनी ही आत्मा में दिखाई देता है, तथा अल्पज्ञता या रागादिमत्त्व न होने पर वक्तत्व नहीं होता यह पाषाण खण्ड आदि में निविवादरूप से वक्तत्व के अनपलम्भ से प्रसिद्ध है। तो फिर, अल्पज्ञता या रागादिमत्त्व के साथ वक्तृत्व के कारणकार्यभावात्मक संबन्ध का ग्राहक जो प्रत्यक्ष अनुपलम्भस्वरूप प्रमाण है जिस के लिये दर्शनाऽदर्शन शब्द का भी प्रयोग होता है वह प्रमाण विपक्षभूत सर्वज्ञ अथवा वीतराग में वक्तृत्व हेतु की सत्ता में बाधक क्यों न माना जाय ? हम जिस प्रभाण का दर्शनादर्शन शब्द से प्रयोग करते हैं, अथवा आप जिस प्रमाण का प्रत्यक्षानुपलम्भ शब्द से प्रयोग करते हैं उसमें कोई ऐसा पक्षपातरूप विशेष उपलब्ध नहीं है जो वक्तृत्व हेतु का अल्पज्ञता या रागादिमत्त्वरूप साध्य के साथ व्याप्तिसंबन्ध के साधन में लगाया जा सके। . [वक्तृत्व में वचनेच्छाहेतुत्व की आशंका अनुचित ] ___ यदि यह कहा जाय 'अपनी आत्मा में अल्पज्ञता और रागादिमत्ता अवश्य है, फिर भी वह वक्तत्व का हेतु नहीं है, वक्तत्व का कारण तो बोलने की इच्छा-कामना है, जब बोलने की कामना नहीं होती तब रागादि के रहने पर भी वचन का उच्चार नहीं होता है ।'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि इस प्रकार वोलने की इच्छा [-विवक्षा] को बीच में लाकर रागादिमत्ता की हेतुता में व्यभिचार दिखाया जायेगा तो विवक्षा भी वचनोच्चार का हेतू न बन सकेगी। कारण, कभी कभी बोलने की इच्छा कुछ अन्य शब्द की होती है और शब्दोच्चार कुछ अन्य हो जाता है यह देखने में आता है। इस बात को असत्य मानगे तो गोत्र स्खलनादि-यानी गौतम आदि गौत्र के उच्चार को इच्छा होने पर स्खलना से कौण्डिन्यादि गोत्र का उच्चार हो जाता है यह सर्वजनअनुभवसिद्ध है उसका अभाव हो जायगा / यदि यह तर्क करे कि-'अर्थविवक्षा यानी अन्य कोई अर्थ के प्रतिपादन की इच्छा रहने पर अन्य ही किसी अर्थ का प्रतिपादन हो जाता है इस प्रकार का व्यभिचार हो सकत शब्द विवक्षा यानी अन्य शब्द बोलने की इच्छा हो तब अन्य शब्द का उच्चार हो जाय ऐसा व्यभिचार नहीं होता।'-यह तर्क संगत नहीं है। कारण, शब्दोच्चार की कोई इच्छा न होने पर भी आदमी स्वप्नावस्था में बकवास करता है और जब चित का ठीकाना नहीं होता उस वक्त बोलने की हो सकता है किन्त
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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