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________________ प्रथमखण्ड-का० १-नित्यसुखसिद्धिवादे उ० 625 उपचरितं चैवं तस्य कार्यत्वमितरस्य च कारणत्वं स्यात् प्रक्षणिकवत् / तत्कारणभावे सत्यभवन्तं प्रति पुनः कारणस्य भावाभावयोर्न कश्चिद्विशेषः, ततोऽक्षणिकादिव क्षणिकादपि सत्त्वादिर्वस्तुस्वभावो व्यावर्त्तत एव / न ह्यक्षणिके एव क्रम-योगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोध:, कि तहि ? क्षणभंगेऽपि / तथाहि-न तावत् कार्य-कारणयोः क्रमः सम्भवति, कालभेदात् जन्य-जनकभावविरोधात् , चिरतरोपरतोत्पन्नपितापुत्रवत् / न हि तादृशस्यापेक्षाऽपि सम्भवति, अनाधेयाऽप्रहेयातिशयत्वाद् अक्षणिकवत्, न हि कश्चिदतिशयं ततोऽनासादयत् भावान्तरमपेक्षते यतः क्रमः स्यात् , जन्यजनकयोराधेयविशेषत्वेऽपि न कमसम्भवः, कमिणोः कालभेदात् तत्त्वानुपपत्तेः / यौगपद्यं तु तयोर्हेतुफलभावतयैवाऽसम्भवि, समानकालयोहि न हेतुफलभावः सव्येतरगोविषाणवदपेक्षानुपपत्तेः / जात का संहरण करने वाले अतएव सकलशक्तिशून्य ऐसी वस्तु का सत्त्व सम्भवित नहीं है जैसे कि गगनकुसुमादि / (सत्त्व मानने के लिये उससे कुछ कार्य होने का मानना चाहिये किन्तु वह भी संगत नहीं होता, वह इस प्रकार:-) कार्योत्पत्ति काल के साथ क्षणिकभाव का योग सम्भव नहीं है, यदि सम्भव माने तो दूसरे क्षण में उसका सद्भाव हो जाने से क्षणिकवाद का भंग हो जायेगा। कार्यकाल के साथ जिसका योग न हो ऐसे पदार्थ में कार्योत्पादन के लिये सामर्थ्य भी नहीं घट सकता जैसे कि चिर पूर्व में विनष्ट पदार्थ वर्तमान में कार्योत्पादन के लिये असमर्थ होता है / यदि ऐसा कहें कि-समनन्तरभावि (=स्वोत्तरकालभावि) कार्य के उत्पादन के लिये कारणक्षण अपने सत्ताकाल में ही समर्थ होता है-तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि कार्यकाल में कार्योत्पत्ति करने के लिये अपेक्षित जो स्वभाव है वह कारणकाल में भी समानरूप से विद्यमान है अत: कार्यकाल के पूर्वक्षण में, अर्थात् कारणक्षण में भी कार्योत्पत्ति हो जाने की आपत्ति आयेगी। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि कारण की विद्यमानता में जो नहीं उत्पन्न होता और कारण की अविद्यमानता में (उत्तरक्षण में) जो स्वयं उत्पन्न होता है ऐसे पदार्थ को 'कार्य' संज्ञा ही प्राप्त नहीं है। समर्थ कारण की विद्यमानता में भी जो उत्पन्न नहीं होता वह कार्य ही कैसे कहा जाय? और उसके कारण को कारण भी कैसे कहा जाय ? यदि कहेंगे तो जिस किसी की भी कारण-कार्य संज्ञा की जा सकेगी। तथा तत् का समनन्तर भाव विशेष (स्वोत्तरक्षणवत्तित्व) मात्र होने से किसी को तत् पदार्थ का कार्य कहना युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि यहाँ समनन्तरजन्यत्व (यानी तत् पदार्थ के उत्तरकाल में उत्पत्ति) की संगति ही नहीं बैठ सकती। कारण, 'समनन्तरजन्यत्व' का पृथक्करण करने पर इतरेतराश्रय दोष होता है यह कहा जा चुका है / कार्यत्व का आधार कारणानन्तये और कारणत्व का आधार कार्यानन्तर्य हो जाने से अन्योन्याश्रय स्पष्ट ही है। . [क्षणिकवाद में कारण-कार्यभाव की अनुपपत्ति ] ... तदुपरांत, कारण की अविद्यमानता में भी उत्पन्न होने वाले भाव की यदि आप 'कार्य' संज्ञा करेंगे तो वह वास्तव न होकर औपचारिक बन जायेगी, अत एव पूर्वभाव में कारणत्व भी ही बन जायेगा, जैसे कि क्षणिकवादी अक्षणिक भाव में कार्यत्व या कारणत्व को वास्तव नहीं किन्तु औपचारिक ही मानता है। तात्पर्य यह है कि, कारणत्वेन अभिमत भाव के होने पर भी कार्य यदि नहीं होता तो उसके प्रति कारण का सद्भाव हो या अभाव, कोई फर्क नहीं पड़ता। अतः अक्षणिक वस्तु में जैसे सत्त्वादिरूप वस्तुस्वभाव संगतियुक्त नहीं है वैसे क्षणिक पदार्थ में भी वह संगत नहीं है / ऐसा नहीं है कि सिर्फ अक्षणिक भाव को ही क्रमशः अथवा एकसाथ अर्थक्रियाकारित्व के साथ
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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