________________ प्रथमखण्ड-का० १-प्रामाण्यवाद तस्माज्जन्मव्यतिरेकेण बद्धापाराभावात् तत्र च ज्ञानानां सगुणेषु कारणेष्वपेक्षावचनात् कुतः स्वातन्त्र्येण प्रवृत्तिरिति ? ! कि तज्ज्ञानस्य कार्य यत्र लब्धात्मनः प्रवृत्तिः स्वयमेवोच्यते ? 'स्वार्थपरिच्छेद'श्चेत् ? न, ज्ञानपर्यायत्वात तस्यात्मानमेव करोतीत्युक्तं स्यात् , तच्चाऽयुक्तम् / 'प्रमाणमेतदित्यनन्तरं निश्चय'श्चेत ? न, भ्रान्तिकारणसद्धावेन क्वचिदनिश्चयाद विपर्ययदर्शनाच्च / तस्माद् जन्मापेक्षया गुणवच्चक्षुरादिकारणप्रभवं प्रामाण्यं परतः सिद्धमिति / / 'अथ चक्षरादिज्ञानकारण' [ पृ. 17 पं. 1 ] इत्याद्ययुक्ततया स्थितम् / / [ आत्मलाभ के बाद स्वकार्य में स्वतः प्रवृत्ति अनुपपन्न ] इस प्रकार जब अपने स्वरूप के और अर्थ के प्रकाशन की जो शक्ति है वही प्रामाण्य है और उस प्रामाण्य की उत्पत्ति में कारणों की अपेक्षा है तो उसकी वह कौनसी अन्य कार्यप्रवृत्ति होगी जो अपने आप हो जायेगी !! इसी कारण से आपका यह वचन भी-जब भाव पदार्थ उत्पन्न हो जाते हैं तब उनकी अपने कार्यों में स्वयं ही प्रवृत्ति होती है - अयुक्त सिद्ध होता है। जो घट का दृष्टान्त दिया गया है वह भी विसदृश होने से असंगत है, घट स्वयं जल को धारण करता है यह ठीक है किन्तु उसके पहले घट की उत्पत्ति अपने कारणों से भिन्नरूप के साथ हो जाती है, एवं घट अन्य क्षणों में अविनष्ट ( स्थिर ) रहता है, इसलिये उत्पत्ति के बाद घट की जो जलधारण में प्रवृत्ति होती है उस में चक्र आदि कारणों की अपेक्षा नहीं रहती। किन्तु विज्ञान पक्ष में ऐसी बात नहीं है क्योंकि उत्पत्ति के बाद तुरन्त ही ज्ञान का नाश माना जाता है। इस दशा में ज्ञान अपनी उत्पत्ति के बाद ही नष्ट हो जाने से अपने कार्य में प्रवृत्ति कैसे कर सकता है ? कहा भी है:. नहि तत्क्षण........इत्यादि- इसका अर्थ-वह ज्ञान अप्रमारूप में उत्पन्न नहीं होता है और क्षण भर भी टीकता नहीं है जिससे वह चक्ष आदि इन्द्रिय के समान उत्पत्ति के बाद अर्थ प्रकाशन में प्रवृत्ति कर सके / इसलिये यह फलित होता है कि ज्ञान की उत्पत्ति ही अर्थ प्रकाशन की प्रवृत्तिरूप है और वही ज्ञान प्रमास्वरूप भी है / एवं तनिष्ठप्रामाण्यवाली बुद्धि ही करण है। [ ज्ञान की स्वातन्त्र्येण प्रवृत्ति किस कार्य में ? ] जब, बुद्धि यानी ज्ञान की जो उत्पत्ति है वही बुद्धि का व्यापार है, उत्पत्ति से अतिरिक्त कोई व्यापार नहीं है और यह ज्ञानोत्पत्ति कैसे होती है ? तो कहते हैं-ज्ञान अपनी उत्पत्ति के लिये गूणयुक्त कारणों की अपेक्षा रखते हैं, तो फिर ज्ञान की प्रवृत्ति स्वतंत्र कैसे मानी जाय ? तात्पर्य यह है कि गुणयुक्त कारणों से ज्ञान की उत्पत्ति यही ज्ञान की प्रवृत्ति है, अब आप चाहते हैं ज्ञान की स्वतंत्ररूप से प्रवत्ति होती है तो आप यह बताईये की ज्ञान की प्रवृत्ति किस कार्य में होती है ? अर्थात् ज्ञान का वह कौनसा कार्य है जिसमें उत्पत्ति के बाद ज्ञान की प्रवत्ति स्वयं होती है ? अगर कहें-अपने स्वरूप का और विषय का प्रकाशन रूप कार्य है-तो यह कहना युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि अपने स्वरूप और विषय का प्रकाशन तो ज्ञान का ही दूसरा नाम है। तब तो फलित यह होगा-'ज्ञान प्रकाशन को करता है अर्थात् खुद को ही करता है।' यह तो युक्त नहीं है क्योंकि कोई भी अर्थ अपने आप को उत्पन्न नहीं कर सकता। यदि आप कहे-ज्ञान का कार्य ज्ञान के बाद उत्पन्न होने वाला यह ज्ञान प्रमाण है' इस प्रकार का प्रामाण्यनिश्चय है, अब कोई आक्षेप नहीं रहेगा कि