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________________ 46 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अपौरुषेयविधिवाक्यप्रभवायास्तु बुद्धेः स्वतः प्रामाण्योत्पत्त्यभ्युपगमो न युक्तः। अपौरुषेयत्वस्य प्रतिपादयिष्यमाणतद्ग्राहकप्रमाणाऽविषयत्वेनाऽसत्त्वात् / सत्त्वेऽपि भवन्नीत्या तस्यैव गुणत्वात तथाभूतप्रेरणाप्रभवायाः बुद्धः कथं न परतः प्रामाण्यम् ? किंच, अपौरुषेयत्वे प्रेरणावचसो, गुणवत्पुरुषप्रणीतलौकिकवाक्येषु तत्त्वेन निश्चितप्रामाण्यं, गुणाश्रयपुरुषप्रणीतत्वव्यावृत्त्या तत् तत्र न स्यात् / तथा च-[श्लो० वा० सू० 2-184] "प्रेरणाजनिता बुद्धिः प्रमाणं दोषवजितैः / कारणैर्जन्यमानत्वाल्लिगाप्तोक्ताक्षबुद्धिवत् // " इत्ययं श्लोक एवं पठितव्यःप्रेरणाजनिता बुद्धिरप्रमा गुणजितैः / कारणैर्जन्यमानत्वालिंगाप्तोक्तबुद्धिवत् // स्वतः प्रामाण्यपक्ष में प्रामाण्य का निश्चय कैसे होगा? क्योंकि ज्ञान कारण है और प्रामाण्य का निश्चय कार्य है, दोनों में भेद है इसलिए कार्य-कारण भाव हो सकता है / परन्तु यह कहना भी अयुक्त है, क्योंकि सर्वदा प्रमाण के ही उत्पादक कारणों का सांनिध्य हो ऐसा नियम नहीं है, कभी कभी भ्रान्ति के उत्पादक कारण भी उपस्थित रहते हैं और तब प्रामाण्य का निश्चय होना असंभव है / इतना ही नहीं कभी विपर्यय भी देखा जाता है, अर्थात् भ्रमात्मक ज्ञान भी. उत्पन्न होता है / (अथवा 'प्रमाणमेतद्' यह निश्चय होने के बदले 'अप्रमाणमेतद्' ऐसा भी निश्चय देखा जाता है।) निष्कर्षः-आपने जो 'ज्ञान के कारण चक्ष आदि से....' [ पृ. 17 ] इत्यादि कहा है वह अयुक्त है और इसलिये यह सिद्ध होता है कि गुणयुक्त चक्षु आदि कारणों से उत्पन्न होने वाला प्रामाण्य अपनी उत्पत्ति की अपेक्षा से स्वतः नहीं उत्पन्न होता किन्तु परतः यानी पर की अपेक्षा से उत्पन्न होता है। [अपौरुषेयविधिवाक्यजन्य बुद्धि प्रमाण कैसे मानी जाय ? ] . 'अपौरुषेय वेदवचन से जो ज्ञान उत्पन्न होता है उस ज्ञान में प्रामाण्य की उत्पत्ति स्वतः होती है' यह कथन भी युक्त नहीं है, क्योंकि 'वचन अपौरुषेय होता है' ऐसा निर्णय करने वाला कोई प्रमाण संभावित नहीं है जिसका वह विषय बने-यह बात आगे बतायी जायेगी। फलतः वाक्य में अपौरुषेयत्व की सत्ता ही असिद्ध है / कदाचित् प्रतिवादी के कथनानुसार अपौरुषेयत्व मान भी लिया जाय तो वह भी आपके मत के अनुसार गुणरूप होने से अपौरुषेय वैदिक वाक्य गुणयुक्त ही सिद्ध होगा। अब उन वाक्यों से उत्पन्न होने वाले ज्ञान को प्रमाण कहा जायगा तो उस ज्ञान का प्रामाण्य पर यानी अपौ. रुषेयत्व गुण की अपेक्षा से ही उत्पन्न हुआ-ऐसा मानने में क्या आपत्ति है ? कुछ भी नहीं। (किंच अपौरुषेयत्वे........) उपरांत, यह भी ज्ञातव्य है-वास्तव में वेदवाक्य पौरुषेय ही है / फिर भी अगर आपौरुषेयत्व का आग्रह हो तब वे प्रमाणरूप नहीं हो सकेंगे / कारण, लौकिक वाक्यों में इस प्रकार जब निश्चय होता है कि 'इन वाक्यों का प्रवक्ता कोई गुणवान् पुरुष है' तब उन वाक्य में उससे प्रामाण्य का निर्णय होता है / वेद वाक्य अपौरुषेय होने पर जब वहाँ कोई रचयिता ही नहीं है तो गुणवान् रचयिता पूरुष तो सर्वथा नहीं है यह फलित होता है, तब गुणवत्पुरुष प्रणीतत्व न होने के कारण उन अपौरुषेय वाक्यों में प्रामाप्य भी कैसे माना जा सकता है ? अब तो, आप को 'प्रेरणाजनिता बुद्धि....' इत्यादि निम्नलिखित श्लोक भी दूसरी रीति से ही पढना होगा। प्रेरणाजनिता बुद्धि: प्रमाणं दोषवजितैः / कारणैर्जन्यमानत्वात् लिंगाप्तोक्ताक्षबुद्धिवत् / / .
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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