________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 ततश्च स्वार्थावबोधशक्तिरूपप्रामाण्यात्मलाभे चेत् कारणापेक्षा, काऽन्या स्वकार्यप्रवृत्तिर्या स्वयमेव स्यात् ? तेनाऽयुक्तमुक्तम् , 'लब्धात्मनां स्वकार्येषु प्रवृत्तिः स्वयमेव तु' // [ पृ. १६-पं. 6 ] इति / घटस्य जलोद्वहनव्यापारात् पूर्व रूपान्तरेण स्वहेतोरुत्पत्तेयुक्तं मृदादिकारणनिरपेक्षस्य स्वकार्ये प्रवृत्तिरित्यतो विसदृशमुदाहरणम् / उत्पत्त्यनंतरमेव च विज्ञानस्य नाशोपगमात् कुतो लब्धात्मनः प्रवृत्तिः स्वयमेव ? तदुक्तम् - [ श्लो० वा० सू० 4-55 56 ] न हि तत्क्षणमप्यास्ते जायते वाऽप्रमात्मकम् / येनार्थग्रहणे पश्चाद् व्याप्रियेतेन्द्रियादिवत् // 1 // तेन जन्मैव विषये बुद्धापार उच्यते / तदेव च प्रमारूपं, तद्वती करणं च धीः // 2 / / इति / भावान्तरविनिमुक्तो भावोऽत्रानुपलम्भवत् / अभाव: सम्मतस्तस्य हेतोः किं न समुद्भवः / / जिसका तात्पर्य है - “जो भाव अन्य भाव से रहित होता है वही उस भाव का अभाव माना जाता है / इसमें अनुपलभ दृष्टान्त है, और जब वह अभाव भावात्मक है तब उसकी हेत से उत्पत्ति क्यों न होगी ?"-यह वचन शोभास्पद नहीं रहेगा। यहां अनुपलम्भ दृष्टान्त इस प्रकार है-किसी स्थान में जब घट का अनुपलम्भ होता है तब वहां पट आदि प्रतीत होने पर ही होता है। पट आदि की प्रतीति न हो तो घट का अनपलम्भ नहीं प्रतीत होता / पट आदि का ज्ञान ही घट के के अनुपलम्भ काल में प्रतीत होता है। इस प्रकार जब एक भावपदार्थ अन्य भावपदार्थ से रहित होता है तो वह अभाव कहा जाता है / अभाव शब्द से कहे जाने पर भी उसका स्वरूप भावात्मक होता है। भावात्मक होने के कारण उस अभाव की उत्पत्ति भी हेतुओं से होनी चाहिये, फलतः दोषाभाव तुच्छ अभाव नहीं किन्तु भावात्मक है। [ दोषाभाव में पयु दास प्रतिषेध कहने में परतः प्रामाण्य आपत्ति ] ( तस्मात् पर्युदास....) निष्कर्ष यह कि दोषाभाव शब्द से जो दोष का निषेध होता है वह पर्युदास प्रतिषेध रूप है [अभाव दो रीति से अभिव्यक्त किया जाता है 1. पर्यु दास प्रतिषेध से 2, प्रसज्य प्रतिषेध से / उदाहरणार्थ, 'घट: पटो न' ( =घट यह पट नहीं है ) यह पर्युदास प्रतिषेध है और यहां एक भाव का दूसरे भाव में तादात्म्य होने का निषेध किया जाता है / 'आकाश में कुसुम नहीं है' यह प्रसज्य प्रतिषेध है और यहां एक भाव में दूसरे भाव के अस्तित्व का निषेध किया गया है / अब प्रस्तुत ] में विज्ञान सामग्री के अन्तर्गत जो गुण हैं वही दोषाभावरूप हैं, अब दोषों का प्रतियोगी यानी विरोधी जो गुण हैं उन से वह दोषाभाव अभिन्न है। तो जब आप कहते हैं-गुणों से दोषों का अभाव होता है तो इस का अभिप्राय यही हआ कि गुणों से गुण उत्पन्न होते हैं, अथोत् गुणों से हा कारणाभिन्न गुण उत्पन्न होते हैं-किन्तु यह मानना युक्तियुक्त नहीं है क्योंकि कोई भी कारक अपने स्वरूप में क्रिया को नहीं उत्पन्न कर सकता। कुठार अपने से भिन्न काष्ट का तो छेदन कर सकता है किन्तु खुद का छेदन यानी दो टूकड़े नहीं कर सकता। दूसरी बात यह है कि गुणों की उत्पत्ति गुण के उत्पादक कारणों से ही होती है, गुणों से नहीं, जब आप कहते हैं दोषों के अभाव के कारण दो प्रकार का अप्रामाण्य नहीं रहता, तब 'नहीं' को पर्यु दास प्रतिषेध मानने पर अप्रामाण्य द्वय का अभाव ही प्रामाण्य होगा-तब उसका अर्थ होगाप्रामाण्य गुणों से उत्पन्न होता है, इससे यह सिद्ध होगा कि प्रामाण्य की उत्पत्ति पर की अपेक्षा से होती है।