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________________ प्रथमखण्ड-का० १.सर्वज्ञसिद्धिः 241 अथ ज्ञानविशेषग्रहणे प्रवृत्तं सविकल्पकं निर्विकल्पकं ततो भिन्नमभिन्नं वा ज्ञानं न वचनविशेष प्रवर्तते, तस्य तदानीमनुत्पन्नत्वेनाऽसत्त्वात् / तदप्रवृत्तेन च ज्ञानविशेषस्वरूपमेव तेन गृह्यते न तदपेक्षया तस्य कारणत्वम् / वचनविशेषग्राहकेणाऽपि तत्स्वरूपमेव गृह्यते न पूर्व प्रति कार्यत्वम्, कारणस्यातीतत्वेताऽग्रहणात् / नाप्युभयग्राहिणा, भिन्नकालत्वेन तयोरेकज्ञाने प्रतिभासनाऽयोगात् / अत एव स्मरणमपि न तयोः कार्यकारणभावावेदकम् , अनुभवानुसारेण तस्य प्रवृत्त्युपपत्तेः, अनुभवस्य चात्र वस्तुनि निषिद्धत्वात् / असदेतत्संकोच करके केवल अग्निसंबद्धधमसामान्य के अवधारण से ही अग्नि का अनुमान मानना होगा। अब यह देखिये कि अग्निसंबद्ध धूम सामान्य का अवधारण कैसे होगा? जब अग्निसंबद्धधूमव्यक्तिओं का अवधारण किया जाय तभी होगा। किंतु यह संभव ही नहीं है कि सर्वदेश-कालवर्ती अग्निसंबद्ध धम व्यक्तिओं से विशेषित धम सामान्य का किसी प्रमाण से अवधारण कर लिया जाय / परिस्थिति यह होगी कि महानसादिदेशवर्ती अग्निनियतधूमव्यक्तिविशिष्ट धूम सामान्य अवगत होने पर भी वह तो अन्यत्र अनूगत नहीं है क्योंकि व्यक्ति का अन्यत्र अन्वय असंभव है। दूसरी ओर जिस धूमसामान्य का अन्यत्र यानी सर्वत्र अनुगम है वह तो (गोपालघूटिका स्थल में) पूर्वोक्तरीति से अग्नि का अव्यभिचारी नहीं है / तब अनुगत एक सामान्य के आधार पर व्याप्ति ग्रहण दिखाने वाले गों को यह प्रश्न समान रूप से कर सकते हैं कि विशिष्ट प्रकार के धमसामान्य की (जिसका अग्नि के साथ व्यभिचार न हो) सर्वदेशकालवर्ती अग्नि के साथ व्याप्ति का ग्रहण आप कैसे करेंगे ? यदि यह कहा जाय कि-"जो जो विशिष्ट (गोपालघुटिका से व्यावृत्त) धूम होगा वह अन्य देशकाल में भी अग्नि जन्य ही होगा इस अभ्युपगम में कोई बाधक नहीं है, और विशिष्टधूमसामान्य का अवगम तो 'तदेवेदम्- वही यह है' इस प्रतीति में होता ही है"-तो ऐसा हम वचन विशेष के संबंध में भी कह सकते हैं कि जो विशिष्ट वचनसामान्य है उसका अवगम 'तदेवेदं वचनम्' इस प्रतीति में होता ही है। हाँ, हम सदृश परिणामरूप सामान्य को उक्त प्रतीति का विषय मानते हैं आप f प तिर्यक सामान्य को, दूसरी कौन सी आपके और हमारे मत में विशेषता है ? कोई नहीं / अत: अनुगत एक सामान्य को न मानने पर आप जो आपत्ति देना चाहते हैं उसका तनिक भी मूल्य नहीं है / निष्कर्षःधूम जिस न्याय=युक्ति से अग्नि का बोधक होता है, वह न्याय हमारे मत का भी पक्षपाती ही है, अर्थात् उसी न्याय से विशिष्ट शब्द विशिष्ट ज्ञान का सूचक अनुमापक है यह अवश्य मानना चाहिये / [ज्ञानविशेष और वचनविशेष के कारण कार्यभावग्रहण में शंका ] ज्ञान विशेष और वचनविशेष के कार्यकारणभाव बोध में यदि इस प्रकार असंभव की शंका . की जाय कि-"जो ज्ञान, चाहे वह सविकल्प हो या निर्विकल्प और ग्राह्य ज्ञान से भिन्न हो या अभिन्न ऐसा जो ज्ञान ज्ञान विशेष को ग्रहण करने में तत्पर है वह वचन विशेष को स्पर्श नहीं करता, क्योंकि उस वक्त वह वचन विशेष अनुत्पन्न है / अतः वचन विशेष में अप्रवृत्त उस ज्ञान से केवल ज्ञानविशेष का स्वरूप ही आवेदित होता है किन्तु तद्गत कारणता यानी वचन विशेष (की अपेक्षा यानी उस) के प्रति उसकी कारणता उससे आवेदित नहीं होती। वचन विशेष का ग्राहक जो ज्ञान है उससे भी उस वचन का स्वरूप ही आवेदित होता है, न कि ज्ञान विशेष की कार्यता। क्योंकि कारणभूत ज्ञानविशेष उस वक्त अस्त हो गया होता है। अतः उसकी कारणता का ग्रह संभव नहीं है। अगर कहें कि
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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