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________________ 242 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यतः कार्यस्य न तावदसावनुत्पन्नस्यैव कार्यत्वं धर्मः, असत्त्वात् तदानीम् / नाप्युत्पन्नस्यात्यन्तभिन्नं तत् , तद्धर्मत्वादेव / तथा, कारणस्यापि कारणत्वं कार्यनिष्पत्त्यनिष्पत्त्यवस्थायां न भिन्नमेव / नापि तयोः कार्यकारणभावः संबन्धोऽन्योऽस्ति, भिन्नकालत्वादेव, संबन्धस्य च द्विष्ठत्वाभ्युपगमात् / ततस्तत्स्वरूपग्राहिणा प्रत्यक्षेण तदभिन्नस्वभावधर्मरूपं कारणत्वं कार्यत्वं च गृह्यते एव क्षयोपशमवशात् / यत्र तु स नास्ति तत्र कार्यदर्शनादपि न तन्निश्चीयते। यतो नाऽकार्य-कारणयोः कार्यकारणभावः संभवति / नाऽपि तेनाभिन्ना उत्तरकालं तयोः कार्यकारणता कत शक्या, विरोधात / नाऽपि भिन्ना, तयोः स्वरूपेणाऽकार्यकारणताप्रसंगात / नाऽपि स्वरूपेण कार्यकारणयोरर्थान्तरभूतकार्यकारणभावस्वरूपसंबन्धपरिकल्पनेन प्रयोजनम् , तद्व्यतिरेकेणापि स्वरूपेरणव कार्यकारणरूपत्वात्। उभयग्राहक ज्ञान से कार्य-कारणता का अवगम होगा तो यह भी संभव नहीं है क्योंकि उन दोनों का काल भिन्न भिन्न है अत. एक ज्ञान में उन दोनों का प्रतिभास अघटित है। यही कारण है कि स्मरण से भी उन दोनों के कारण-कार्यभाव का आवेदन नहीं हो सकता / क्योंकि स्मरण तो अनुभवमूलक ही प्रवृत्त होता है, यहाँ प्रस्तुत वस्तु में तो अनुभव की शक्यता निषिद्ध हो चुकी है। तात्पर्य किसी भी रीति से उन दोनों के कार्यकरणभाव का अवगम शक्य नहीं है।"-व्याख्याकार इस शंका को गलत बता रहे हैं। कारण निम्नोक्त है [क्षयोपशमविशेष से कारण-कार्यभावग्रहण ] __ उपरोक्त शंका गलत होने का कारण इस प्रकार है कि- कार्यत्व यह अनुत्पन्न कार्य का धर्म तो नहीं हो सकता, क्योंकि उस स्थिति में कार्य ही असत् होता है / तथा, उत्पन्न कार्य से कार्यत्व एकान्त भिन्न भी नहीं है क्योंकि वह उसका धर्म है, सर्वथा भिन्न पदार्थ (जैसे आकाश) किसी का धर्म नहीं होता है / तथा कारणत्व भी कारण से जब कार्य उत्पन्न हआ है या नहीं भी हुआ है-उस अवस्था में कारण से सर्वथा भिन्न नहीं होता क्योंकि वह कारण का धर्म है। कार्यत्व और कारणत्व इन दोनों से अतिरिक्त कोई कार्यकारणभावनामक संबध भी कार्यकारण का नहीं है। क्योंकि कारण और कार्य का काल भिन्न भिन्न होता है जब कि संबद्ध दो में रहने वाला होने से दोनों के समान काल की अपेक्षा करेगा। जब कारणत्वादि उक्त रीति से अपने आश्रय से अभिन्न है, तो कारण और कार्य के स्वरूपग्राहक प्रत्यक्ष से कारण (या कार्य) से अभिन्नस्वभाव वाले धर्मभूत कारणत्व और कार्यत्व का भी ग्रहण क्षयोपशमविशेष से गृहीत होता ही है / क्षयोपशम उसे कहते हैं जहाँ उदयागत च्छन्न ज्ञानावरण कर्म क्षीण हो जाता है और अनूदित कर्म उपशान्त-सुषुप्त हो जाता है और तब जो ज्ञानशक्ति का आविर्भाव होता है उसे क्षयोपशम कहा जाता है / ऐसा ज्ञानशक्तिविशेषरूप क्षयोपशम जहाँ नहीं होता वहां कार्य को देखने पर भी कार्यता का निर्णय नहीं हो पाता। [ कार्यकारणभाव दोनों से अतिरिक्त नहीं है ] व्याख्याकार कार्यकारणभाव को अतिरिक्त संबधरूप में नहीं मानने का हेतु दिखाते हैं कि जो अकार्यरूप और अकारणरूप होता है उनके बीच तो कार्यकारणभाव संबंध का संभव ही नहीं है / अत एव जो पूर्वकाल में अकार्यरूप और अकारणरूप है उनकी उत्तरकाल में कार्यकारणता की संभावना करनी होगी, किन्तु उस सम्बन्ध से कार्याभिन्न या कारणाभिन्न कार्य-कारणता को करना
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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