________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वर० उत्तरपक्ष: 563 एतेनेदमपि प्रत्युक्तम् 'ज्ञानं परममहत्त्वोपेतद्रव्यसमवेतम् , विशेषगुणत्वे सति प्रदेशवृत्तित्वात् , शब्दवत् / ' अत्रापि ज्ञानस्य परममहत्त्वोपेतद्रव्यसमवेतत्वे सति ततः शब्दस्य तसिद्धिः, तत्सिद्धेश्च ज्ञानस्य परममहत्त्वोपेतद्रव्यसमवेतत्वसिद्धिरितीतरेतराश्रयदोषः / न च दृष्टान्तान्तरमस्ति यतोऽन्यतरप्रसिद्धरयमदोष स्यात / ज्ञानस्य चात्मनोऽव्यतिरेकित्वे तदव्यापित्वम्, 'यद यस्मादव्यतिरिक्तं तत तत्स्वभावं यथाऽऽत्मस्वरूपम् , आत्माऽव्यतिरिक्तं चैतत् , ततस्तव्यापि' इति न प्रदेशवृत्तित्वम् / तथापि तवृत्तित्वे ज्ञानेतरस्वभावतयाऽऽत्मनोऽनेकान्तसिद्धिः / व्यतिरेके आत्मगुणत्ववदन्यगुणत्वस्याप्यप्रतिषेधाद् विशेषगुणत्वाऽसिद्धिः। ___ व्यतिरेकाऽविशेषेऽप्यात्मन एव गुणो ज्ञानं नाकाशादेरिति किंकृतोऽयं विशेषः ? 'समवायकृत.' इति चेत् ? न, तस्यापि ताभ्यामर्थान्तरत्वे तदवस्थो दोषः, व्यतिरेके समवायस्य सर्वत्राऽविशेषाद न ततोऽपि विशेषः / अव्यतिरेके तस्यैवाऽभाव इति न ततो विशेषः / न च समवायः संभवति इति प्रतिऊपर यह निवेदन है कि चेतन और अचेतनों में सत्ता यदि एक ही होती तब तो चेतनअचेतन पदार्थों में एकरूप से होने वाली 'सत्' बुद्धि की विषयता से द्रव्यादि में भिन्नसत्ता का सम्बन्ध सिद्ध किया जा सकता था, किन्तु हमें यह कहना है कि चेतन और अचेतनों में रहने वाली सत्ता एक नहीं है किन्तु चेतनगत सत्ता के तुल्य अन्य सत्ता हो अचेतनों में रहती है-इस बात का हम आगे निर्णय करायेंगे जब सामान्य सदृशपरिणामरूप ही है इस के प्रतिपादन का अवसर आयेगा। निष्कर्ष, शब्द में गुणत्व ही सिद्ध नहीं है, फलतः आकाश रूप दृष्टान्त में 'नित्य होते हुए. हम लोगों को उपलब्ध होने वाले गुण (शब्द) का आश्रय होने से ' ऐसा हेतु भी असिद्ध है, तो फिर हेतुशून्य आकाश के दृष्टान्त से आत्मा में विभुपरिमाण की सिद्धि कैसे होगी ? [ आत्मविभुत्वसाधक अन्य अनुमान का निरसन ] उपरोक्त चर्चा से अब यह भी निरस्त हो जायेगा जो नैयायिकों ने कहा है कि-ज्ञान परममहत्परिमाणवाले द्रव्य में समवेत है चूंकि वह विशेषगुण होते हुए प्रदेश वृत्ति वाला है [ यानी अव्याप्यवत्ति है 1. जैसे शब्द। यह अनमान इस लिये निरस्त है कि यहाँ अन्योन्याश्रय दोष लगा है-ज्ञान में परममहत्परिमाणवद्रव्यसमवेतत्व की सिद्धि होने पर ज्ञान के दृष्टान्त से शब्द में उसकी सिद्धि होगी और शब्द में उसकी सिद्धि के आधार से ज्ञान में परममहत्परिमाणवद्रव्यसमवेतत्व की सिद्धि हो सकेगी-स्पष्ट ही अन्योन्याश्रय हो जाता है। शब्द से भिन्न तो कोई इन्टान्त खोजा नहीं गया जिसके आधार पर ज्ञान या शब्द में साध्य की सिद्धि करके अन्योन्याश्रय दोष को हठाया जा सके। तदुपरांत, यह भी सोच सकते हैं कि ज्ञान आत्मा से अपृथक् है या पृथक् है ? यदि अपृथक होगा तब तो आत्मवत् वह भी व्यापक ही होगा, नियम:-जो जिससे अपृथक् होता है वह उसके स्वभावरूप यानी तद्रूप होता है जैसे आत्मा और उसका स्वरूप / ज्ञान भी आत्मा से अव्यतिरिक्त (=अपृथक्) है अत: आत्मवत् व्यापक ही सिद्ध होगा। फलतः, ज्ञान में प्रदेशवृत्तित्व ही नहीं रहा फिर भी यदि उसे प्रदेशवृत्ति मानेंगे तो आत्मा में ज्ञान स्वभाव तो है ही और ज्ञान के प्रदेशवृत्तित्व के बल से में ज्ञानेतरस्वभाव भी सिद्ध होने से अनेकान्तवाद को हा विजय होगी। यदि ज्ञान को आत्मा से पृथक् माना जाय तो इस पक्ष में, वह जैसे आत्मा का गुण माना जाता है वैसे अन्य द्रव्य का भी * माना जाय तो कौन निषेध कर सकेगा ? फलत: वह सामान्य गुण बन जायेगा, विशेषगुण नहीं रहेगा। ही उस