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________________ 156 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 किंचित् पश्यति, किंचिन्नेत्युपलब्धम् / तथा बाधिर्यनिराकरणद्वारेण बलातैलादिना संस्कृतं श्रोत्रं स्वग्राह्यान् गकारादीन् वर्णान विशेषेणैवोपलभमानमुपलभ्यते / एवं घ्राणादीनीन्द्रियाणि स्वव्यंजकैः संस्कृ. तानि स्वविषयग्राहकत्वेनाविशेषेण प्रवर्त्तमानानि प्रतीयन्त इति प्रकृतेऽप्ययमेव न्यायो युक्तः / किंच, इन्द्रियं संस्कुर्वद् व्यंजकं यदि यथावस्थितवर्णग्राहकत्वेनेन्द्रियसंस्कारं विदध्यात् तदा सकलनभस्तलव्यापिनी गादेः प्रतिपत्तिः स्यात, न चासो दृष्टा, प्रथाऽन्यथा न तोहवणस्वरूपप्रातभास इति न तत्स्वरूपसिद्धिः। तन्न श्रोत्रसंस्कारोऽभिव्यक्तिः / नाप्युभयसंस्कारोऽभिव्यक्तिः, प्रत्येकपक्षोक्तदोषप्रसंगात् / न चान्यप्रकारः संस्कारोऽभिव्यक्तिः संभवति, तद् अभिव्यक्तेरसंभवाद् नानभिव्यक्तिनिमित्तोऽन्तराले गादीनामनुपलम्भः, किन्तु दलितनखशिखरादिष्विवाभावनिमित्तः-इति लुनपुनर्जातनखादिष्विवापान्तरालादर्शनेन गादिप्रत्यभिज्ञाया बाध्यमानत्वादप्रामाण्यम्। अथ खंडितपुनरुदितकररुहसमूहविषयाया अपि प्रत्यभिज्ञायास्तत्सामान्यविषयत्वेन नाऽप्रामाही संस्कार इन्द्रियों पर करें, ऐसा कभी देखा नहीं गया है / अंजनादि लगाने पर नेत्रेन्द्रिय निकटवर्ती कोइ एक अपने विषय का ग्रहण करे और तत्समान अन्य का न करे ऐसा देखने में नहीं आया है / एवं वलातैलादि से संस्कृत श्रोत्र बधिरता को दूर करने द्वारा स्वग्राह्य गकारादि सभी वर्गों को विना कोई पक्षपात सुन लेता है-यह स्पष्ट दिखाई देता है / तथा, अपने अपने व्यंजकों से परिष्कृत घ्राणादि इन्द्रिय, विना किसी पक्षपात से अपने विषयों के ग्राहकरूप में प्रवर्तती हुयी दिखाई देती हैं, इसलिये प्रस्तुत में भी यही न्याय स्वीकार लेना युक्त है। दूसरी बात यह है कि-इन्द्रिय संस्कार करने वाला व्यंजकवायु अगर यथार्थरूप में वर्ण को ग्रहण करने में सशक्त ऐसे इन्द्रियसंस्कार को जन्म देगा तो समस्त ब्रह्माण्ड व्यापक गकारादि वर्ण का बोध होने लगेगा। किन्तु ऐसा कभी देखा नहीं है / तथा यदि यथार्थ रूप में वर्णग्रहणसशक्त संस्कार को जन्म नहीं देगा तो वर्णस्वरूप का अवभास ही नहीं हो सकेगा। फलत: कोई स्वरूप ही वर्ण का सिद्ध नहीं होगा। सारांश, अभिव्यक्ति श्रोत्रसंस्कार रूप भी नहीं है। . [ उभय संस्कारस्वरूप अभिव्यक्ति की अनुपपत्ति ] तथा 'वर्ण और श्रोत्र तदुभय का संस्कार अभिव्यक्ति है' यह भी नहीं हो सकता क्योंकि उभय पक्ष में प्रयुक्त दोषों का प्रवेश इस पक्ष में हो जायगा। अन्य किसी प्रकार से संस्कार स्वरूप अभिव्यक्ति का कोई संभव भी नहीं है, तो इस प्रकार किसी भी रीति से अभिव्यक्ति पक्ष उचित न होने से गकारादि का दो उच्चारण काल के मध्य में अनुपलम्भ उसकी अनभिव्यक्ति के कारण नहीं माना जा सकता। किंतु यही मान लेना चाहिये कि उस काल में उसका अभाव होता है जैसे कि नख के अग्र भाग को एक बार काट देने पर कुछ काल तक उसके अदर्शन में उसका अभाव ही निमित्त होता है। इससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि गकारादि की पुनरुक्ति में 'यह वही गकार है' ऐसी जो प्रत्यभिज्ञा होती है वह प्रमाण नहीं किन्तु भ्रान्त है, जैसे कि मध्यकाल में न देखने के बाद पुनर्जात नख को देख कर भी यह प्रतीति होती है कि 'यह वही नख है'-किन्तु वह भ्रान्त होती है। [शब्दएकत्व प्रत्यभिज्ञा में बाधाभाव की आशंका ] नित्यवादीः- बार बार काट देने पर नये नये उगने वाले नखादि के समूह को विषय करने
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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