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________________ प्रथमखण्ड-का०१-प्रामाण्यवाद स्यान्मतं “यदप्यन्यानपेक्षप्रमितिभावो बाधकप्रत्ययः, तथाऽप्यबाधकतया प्रतीत एवान्यस्याऽप्रमाणतामाधातुक्षमो नान्यथेति," सोऽयमदोषः, यतः-[ द्र० तत्त्व० 2865-70 ] बाधकप्रत्ययस्तावदर्थान्यत्वावधारणम् / सोऽनपेक्षप्रमाणत्वात् पूर्वज्ञानमपोहते // तत्रापि त्वपवादस्य स्यादपेक्षा क्वचित् पुनः / जाताशंकस्य पूर्वेण * साप्यन्येन निवर्तते // बाधकान्तरमुत्पन्नं यद्यस्यान्विच्छतोऽपरम् / ततो मध्यमबाधेन पूर्वस्यैव प्रमाणता // जअथान्यदप्रयत्नेन सम्यगन्वेषणे कृते / मूलाभावान्न विज्ञानं भवेद बाधकबाधनम् // ततो निरपवादत्वात् तेनैवाद्यं बलीयसा / बाध्यते तेन तस्यैव प्रमाणत्वमपोद्यते।। एवं परोक्षकज्ञानत्रितयं नातिवर्तते। ततश्चाजातबाधेन नाशंक्यं बाधकं पुनः // इति / मीमांसक अपने प्रतिपक्षी को कहता है कि कदाचित् आप यह कहें कि-'बाधक प्रत्यय का प्रामाण्य अन्य सापेक्ष न होने पर भी जब तक वह स्वयं बाधक रहित होने का निश्चित न हो तब तक वह अपने बाध्यज्ञान के अप्रामाण्य का आधान यानी प्रतिपादन करने में समर्थ नहीं हो सकता-' किन्तु इसमें कोई दोष नहीं है क्योंकि बाधकप्रत्ययस्तावद........इत्यादि कारिकाओं में हमने इस निर्दोषता का इस तरह प्रतिपादन किया ही है कि बाधकप्रत्यय का मतलब है 'पूर्वज्ञान अपने विषय से विपरीत है' ऐसा अवधारण करने वाला ज्ञान / यह ज्ञान अपने प्रामाण्य में परावलम्बी नहीं है इस लिये उससे पूर्वज्ञान का अपोह यानी अप्रामाण्य प्रकाशित होता है। [ 2865 ] : कदाचित् इस बाधकप्रत्यय में भी पूर्वकालीन मिथ्याज्ञान के साधर्म्य से प्रमाता को शंका पड़ जाने से अपवाद की अपेक्षा हो जाय यानी उसमें अप्रामाण्य है या नहीं इसके निर्णय की आवश्यकता हो जाय तो उसकी भी निवृत्ति यानी पूत्ति अन्य अप्रामाण्यशंकानिवारक ज्ञान से हो जाती है।[२८६६] कदाचित् प्रमाता की इच्छा न होने पर भो बाधकप्रत्यय का ही अन्य बाधज्ञान उत्पन्न हो गया, तब तो वह मध्यम बाधकप्रत्यय ही बाधित हो जाने से प्रथम ज्ञान का प्रामाण्य निर्बाध रहता है। [ 2867 ] .. किन्तु जब योग्य प्रयत्न से कडी जाँच-पडताल करने पर भी मूल यानी कारण न होने से बाधकप्रत्यय का बाध करने वाला विज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ तब तो-[२८६८ ] . कोई अपवाद यानी अप्रामाण्य का प्रयोजक न होने से वह बाधकप्रत्यय बलवान हो कर आद्य ज्ञान को बाधित कर देता है इसलिये आद्यज्ञान का प्रामाण्य अपोदित हो जाता है अर्थात् वह अप्रमाण सिद्ध होता है। [ 2869 ] . इस रीति से परीक्षकपुरुष को भी तीनज्ञान से अधिक आगे जाने की जरूर नहीं रहती, अतएव बाधक के बाधक की उत्पत्ति न होने पर पुन:पुन: बाधक की शंका करनी नहीं चाहिये / [ 2870 ] तस्मात् स्वतः....यहां से लेकर नाशंक्यं बाधकं पुन........यहां तक भट्ट ने उपरोक्त रीति से जो कुछ कहा वह सब हमारे पूर्वोक्त अनवस्थादि दोष की ध्र वता आदि प्रतिपादन से निरस्त हो जाता है-वह इस प्रकार___ भट्ट ने अपने उपरोक्त ग्रन्थ से स्वतः प्रामाण्य पक्ष के व्याधात का परिहार किया है और परीक्षक को तीन ज्ञान से अधिक ज्ञान की अपेक्षा न होने से अनवस्था दोष का परिहार किया है किन्तु *'साप्यल्पेन' इति, ''अथानुरूपयत्नेन' इति च तत्त्वसंग्रहे /
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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