SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 289
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 256 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 एतेन-विरुद्धार्थग्राहकस्य च तज्ज्ञानस्य न प्रतिनियतार्थग्राहकत्वं स्याद्-इत्याद्यपि निरस्तम् , छायाऽऽतापादिविरुद्धार्थग्राहिणोऽपि ज्ञानस्य प्रतिनियतार्थग्राहकत्वसंवेदनात् / यच्चोक्तम्-यदि युगपत्सर्वपदार्थग्राहकं तज्ज्ञानं तदैकक्षणे एव सर्वपदार्थवेदनात द्वितीयादिक्षणे किचिज्ज्ञ एव स स्यात् इत्यादितदप्यत्यन्ताऽसंबद्धम् , यतो यदि द्वितीयक्षणे पदार्थानां तज्ज्ञानस्य चाऽभावः स्यात् तदा स्यादप्येतत् , न चैतत्संभवति, तथाऽभ्युपगमे द्वितीयक्षणे सर्वपदार्थाभावात् सकलसंसारोच्छेदः स्यात् / यदप्यभ्यध्यायि-अनाद्यनन्तपदार्थसंवेदने तत्संवेदनस्याऽपरिसमाप्तिः.......इत्यादि तदप्ययुक्तम् , अत्यन्ताभ्यस्तशास्त्रार्थज्ञानस्येव युगपदनाद्यनन्तार्थग्राहिणस्तज्ज्ञानस्यापि परिसमाप्तिसंभवात् / अन्यथा भूत-भविष्यत्-सूक्ष्मादिपदार्थग्राहिणः प्रेरणाजनितस्यापि कथं परिसमाप्तिः ? तत्राप्यपरिसमाप्त्यभ्युपगमे "चोदना भतं भवन्तं भविष्यन्तम्"........इत्यादिवचनस्य नरर्थक्यं स्यादिति / यह जो आपने कहा है-[प०२१३ ] यदि ऐसा मानेंगे कि सर्वज्ञ का ज्ञान एक साथ ही सकलपदार्थ का वेदक है तो अन्योन्यविरुद्ध शीत और उष्णादि पदार्थों का एकसाथ प्रतिभास संभव न हो सकेगा और कदाचित संभव होगा तो भी........इत्यादि-वह सब अयूक्त कहा गया है, क्योंकि यह सोचना जरूरी है कि क्या परस्परविरुद्ध पदार्थों का एक काल में अवस्थान ही असंभव है ? या अवस्थान होने पर भी एकज्ञान में उसका प्रतिभास नहीं होता ऐसा आपका कहने का आशय है ? इसमें अगर प्रथम का स्वीकार करें तो वह युक्त नहीं है। कारण, पानी और अग्नि तथा छाया और आतप ये पदार्थ परस्पर विरुद्ध होते हए भी एक काल में स्थानभेद से अवस्थित होते ही हैं। यदि यह अवस्थान असंभव मानेंगे तो उसका अर्थ यह निकलेगा कि परस्पर विरुद्ध होने से वे पदार्थ एक ज्ञान में नहीं भासते ऐसा नहीं किन्तु एक काल में न होने से ही एक सर्वज्ञज्ञान में उन विरुद्धपदार्थों का प्रतिभास नहीं होता है / इस लिये दूसरा विकल्प भी प्रतिहत हो जाता है। तथा विरुद्ध पदार्थों का भी एक ज्ञान में प्रतिभास संवेदन होता है यह अनुभवसिद्ध होने से भी दूसरा विकल्प अयुक्त सिद्ध होता है। [विरुद्धार्थग्राहकता में आपत्ति का अभाव ]. परस्परविरुद्धार्थों का ग्रहण निर्बाध है अत एव आपने जो यह कहा है [ पृ० 213 ]-'विरुद्धार्थग्राहक सर्वज्ञज्ञान प्रतिनियत ही अर्थ का ग्राहक नहीं हो सकेगा....... इत्यादि'- यह निर्मूल हो जाता है क्योंकि एक ही ज्ञान से स्थान भेद से छाया और आतप का असंकीर्ण स्फुट अनुभव होता है अतः प्रतिनियतार्थग्राहिता संवेदनसिद्ध ही है / और भी जो आपने कहा है-[पृ० 214 ] सर्वज्ञ का ज्ञान यदि एक साथ सभी वस्तु को ग्रहण करने वाला होगा तो एक ही क्षण में सभी पदार्थ को ग्रहण कर लेगा तो दूसरे क्षण में वह किंचिद् ज्ञाता ही रहेगा........इत्यादि-वह तो अत्यन्त संबंधविहीन है। क्योंकि यदि द्वितीय क्षण में ज्ञेय पदार्थों का अथवा ज्ञान का अभाव हो जाता तब तो यह हो सकता था किन्तु वैसा कोई संभव ही नहीं है / यदि वैसा मान लिया जायेगा तो बडी आपत्ति यह आयेगी कि दूसरे क्षण सभी पदार्थों का शून्य में परिवर्तन हो जाने से सारे संसार का उच्छेद हो जायेगा। [संवेदन अपरिसमाप्ति दोष का निरसन ] यह जो आपने कहा [ पृ० 214 ]-पदार्थों का प्रवाह अनादि और अनन्त होने से उन सभी का संवेदन मानेंगे तो उस संवेदन का भी अन्त नहीं आयेगा........इत्यादि-वह भी अयुक्त है, शास्त्रार्थों का जब अत्यन्त अभ्यास पड जाता है तब जैसे एक साथ वे सभी एक ही ज्ञान में याद आ जाते हैं उसी
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy