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________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वर० उत्तरपक्ष: सम्बन्धलक्षणस्य विभत्वस्य साधनमनमानतो यक्तम. अन्यथा घटादिभिर्मेदिस्तेन च घटाटीनां तथा संयोगः किं नेष्यते यत: सांख्यदर्शनं न स्यात् ?' 'प्रत्यक्षबाधनाद् नैवम्' इति चेत् , किमत्र प्रत्यक्षबाधनं काकैक्षितम् ? अथात्र पक्षधर्मान्वयव्यतिरेकलक्षणयुक्तहेतुसद्भावात तथाभ्युपगमः, अन्यत्र विपर्ययाद् नेति चेत् ? तहि पक्वान्येतानि फलानि एकशाखाप्रभवत्वात उपयुक्तफलवत्' इत्यत्र तथाविधहेतुसद्भावात्तथाभ्युपगमः किं न स्यात् ? पक्षस्य प्रत्यक्षबाधा हेतोर्वा कालात्ययापदिष्टत्वमन्यत्रापि समानम् / * न च स्वसंवेदनप्रत्यक्षमेवानुमानेन प्रकृतेन बाध्यत इति वक्तुयुक्तम् , प्रत्यक्षपूर्वकत्वाभ्युपगमादनुमानस्य प्रत्यक्षाऽप्रामाण्ये तस्याऽप्रवृत्तिप्रसंगात् / न च तथाभूतात्मग्राहकस्य स्वसंवेदनाध्यक्षस्याप्रामाण्यनिबन्धनमपरमुत्पश्यामः / न चान्यादृक्षस्यात्मनो विभुत्वसाधनाय हेतूपन्यासः सफलः, तस्य प्रमाणाऽविषयत्वेनाऽसिद्धत्वाद् हेतोराश्रयासिद्धताप्रसंगात / तदेवमस्मदाद्युपलभ्यत्वे बुद्धिलक्षणस्य गुणस्य हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वम् , अनुपलभ्यत्वे विशेषणाऽसिद्धत्वम् / आत्मा को प्रत्यक्ष मानने पर, अनुमान से उसमें एक साथ सकल देश में रहे हुए मूर्त द्रव्यों के सम्बन्धरूप विभुत्व की सिद्धि करना अयुक्त है क्योंकि हर्ष-खेदादि अनेक विवत्तों से विशिष्ट देहमात्रव्यापी आत्मा ही स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से सिद्ध होता है / प्रत्यक्ष से देहमात्रव्यापिता सिद्ध होने पर भी यदि उस को आपके सिद्धान्तानुसार सर्वगत व्यापक मानेंगे तो 'सर्वं सर्वत्र विद्यते' इस मत के अनुसार सांख्य दर्शन में घटादि का मेरु आदि के साथ और मेरु आदि का घटादि के साथ जैसे संयोग माना जाता है वैसा आप भी क्यों नहीं मानते हैं ? इस मत में प्रत्यक्ष बाधक है इस लिये यदि वह अमान्य है तो फिर आत्मा के विभूत्व में भी 'देहमात्रव्यापिता का प्रत्यक्ष बाधक है उसे क्या कौवे खा गये हैं ? यदि ऐसा कहें कि-पक्षधर्मता और साध्य के साथ अन्वय-व्यतिरेक लक्षण से युक्त हेतु का आत्मविभुत्व की सिद्धि में सद्भाव है, अतः आत्मा को विभु मानते हैं, घटादि और मेरु के संयोग का साधक कोई लक्षणयुक्त हेतु नहीं है, इस लिये उसे नहीं मानते हैं तो यहाँ आपको ऐसी आपत्ति होगी कि 'ये फल पक्व हैं क्योंकि एक शाखा में उत्पन्न हुए हैं जैसे इसी शाखा में उत्पन्न पूर्व भुक्त फल' इस अनुमान में भी एकशाखाप्रभवत्व' हेतु पक्ष में वृत्ति है और अपने साध्य के साथ अन्वय-व्यतिरेकवाला भी है तो आपको वे अपक्व फल भी पक्व मानना होगा / यदि कहें कि यहाँ तो पक्षभूत फलों में पक्वता का प्रत्यक्ष बाध है और उसके बाद हेतु का प्रयोग करने पर कालात्ययापदिष्टता का दोष है-तो यह कथन आत्मविभुत्वसिद्धि में भी समान है, वहाँ भी कहेंगे कि आत्मा में विभुत्व का प्रत्यक्ष बाध है और उसके बाद प्रयुक्त हेतु में कालात्ययापदिष्ट दोष भी है। [ अनुमान से प्रत्यक्ष वाध अयुक्त ] ऐसा भी'हमारे विभुत्वसाधक अनुमान से आपका देहमात्रव्यापिता का प्रत्यक्ष ही बाधित है'नहीं कह सकते, क्योंकि अनुमान की प्रवृत्ति प्रत्यक्षमूलक होती है, यदि प्रत्यक्ष को अप्रमाण कह देंगे तो अनुमान की प्रवृत्ति ही रुक जायेगी / और देहमात्रव्यापी आत्मा के ग्राहक स्वसंवेदनप्रत्यक्ष को अप्रमाण मानने में कोई भी निमित्त नहीं दीखता हैं। हर्षविषादादिविवर्त्तरहित आत्मा को व्यापक सिद्ध करने के लिये यदि आप हेतु-उपन्यास करे तो वह असफल रहेगा, क्योंकि हर्षविषादादिविवर्त्तरहित आत्मा प्रमाण का विषय न होने से असिद्ध है। अत: हेतु भी आश्रयासिद्धता दोष दुष्ट हो जायेगा। इस प्रकार, बुद्धिरूप गुण को यदि हम लोगों के प्रत्यक्ष का विषय माने तब तो देहमात्रव्यापिता के
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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