SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 451
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 418 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 सिद्धम् / तथाहि अन्य एव पाण्यादय आरम्भका देशास्तन्वाद्यवयविनो भवद्भिः परिभाष्यन्ते, अन्ये च पाण्यादीनां तदवयवानामारम्भका देशाः, आरभ्यारम्भकवादनिषेधात् / तन्न पारिभाषिक समानदेशत्वम् / b नापि लौकिकं आकाशस्य लोकप्रसिद्धस्य समानदेशस्याऽस्मान प्रत्यसिद्धत्वात् / प्रकाशादिरूपस्य च देशस्य तत्सिद्धस्य समानत्वेऽपि भिन्नानां व ताऽऽतपादीनां भेदेनोपलब्धः / तथाहि-समानदेशा अपि भावा वाताऽऽतपादयो भिन्नतनवः पृथक् प्रथन्ते; न चैवमवर्यावनिर्भासः / तन्नावयवी तन्वादिभिन्नोऽस्ति / अथ मन्दमन्दप्रकाशे अवयवप्रतिभासमन्तरेणाप्यवयविनि प्रतिभास उपलभ्यते तत्कथं प्रतिभासाभावात् तस्याभावः ? असदेतत् नहि तथाभूतोऽस्पष्टप्रतिभासोऽवयविस्वरूपव्यवस्थापको युत्तः, तत्प्रतिभासस्याऽस्पष्टरूपस्य स्पष्टज्ञानावभासितत्स्वरूपेण विरोधात / अथ स्वरूपद्वयमेतदवयविन:स्पष्टम् अस्पष्टं च / तत्राऽस्पष्टं मन्दालोकज्ञान विषयः, स्पष्टं तु सालोकज्ञानभूमिः / नन्वेतत् स्वरूपद्वयं केनावयविनो गृह्यते ? न तावद् मन्दालोकज्ञानेन, तत्र सालोकज्ञानविषयस्पष्टरूपानवभासनात् , उत्तरपक्षी:-यह कहना शक्य नहीं, क्योंकि 'समान देशवर्ती होने से इसकी विकल्पों से उपपत्ति नहीं होती। जैसे देखिये-अवयव अवयवी की समानदेशता a पारिभाषिक ( अर्थात् स्वतंत्र संकेत वाली ) मानते हो या b लोकप्रसिद्ध ? a अगर पारिभाषिक मानते हो तो उसकी उद्घोषणा यहाँ करने की जरूर नहीं क्योंकि यहाँ स्वतंत्र सांकेतिक वस्तु के विचार का प्रकरण नहीं है / उपरांत, पारिभाषिक समानदेशता भी आपके मत से यहां सिद्ध नहीं है। कारण, पारिभाषिक समानदेशता का अर्थ है दोनों का देश=अधिकरण एक होना, किन्तु न्यायवैशेषिकमत में अवयव-अवयवी का अधिकरण एक नहीं है। हस्त-पादादि अवयवों ही शरीरादि अवयवी का आरम्भक देश है ऐसी न्याय-वैशेषिकों की परिभाषा है, और हस्तपादादि देहावयव के आरम्भक देश भी अलग ही हैं। ऐसा इसलिये है कि न्याय-वैशेषिक मत में आरभ्यारम्भकवाद का निषेध किया है / आशय यह है कि दो अणुवों से वे लोग द्वयणुक की उत्पत्ति मानते हैं, किन्तु उसमें तीसरे अणु के मिलने पर त्र्यणुक की उत्पत्ति नहीं मानते हैं, अर्थात् पूर्व पूर्व कार्य द्रव्य में एक-एक अणु के संयोग से नये नये द्रव्य की उत्पत्ति का निषेध करते हैं / अत: अवयवी के अवयवों को और अवयवों के स्वावयवों को अलग अलग ही मानते हैं / अतः पारिभाषिक समान देशता घट नहीं सकती। लौकिक समानदेशता भी नहीं घट सकती क्योंकि आकाश ही लोक प्रसिद्ध समान देश है जिसको हम मानते ही नहीं है / [ यह बौद्धमत के अनुसार कहा है ] / प्रकाशादि लोकप्रसिद्ध समान देश को लिया जाय तो भी वहाँ पवन और आतप आदि समानदेशवर्ती होने पर भी भिन्न भित्र उपलब्ध होते ही हैं जैसेः पवन और आतप धूमस इत्यादि भाव समान देशवाले होने पर भी स्वतन्त्र वस्तुरूप में ही अलग प्रतीत होते हैं, किन्तु अवयवी का इस प्रकार अलग निर्भास नहीं होता सारांश, शरीरादि कोई स्वतंत्र अवयवी नहीं है। [ अवयवी का स्वतन्त्रप्रतिभास विरोधग्रस्त है ] पूर्वपक्षी:-मन्द मन्द प्रकाश में जब वस्तु के अवयवों का आकलन नहीं हो पाता तब भी 'यह कुछ है' ऐसा अवयवी का प्रतिभास दिखता है, तो क्यों ऐसा माने कि प्रतिभास न होने से अवयवी भी नहीं है ?
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy