________________ '426 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 त्वानुपपत्तिः / स्थूलतनुश्च बहिर्नीलादिरूपः प्रतिभासः स्फुटमुद्भाति / न च स्थूलरूपं प्रत्येकं परमाणुषु सम्भवति, तथात्वे परमाणुत्वाऽयोगात् / नापि समुदितेषु स्थूलरूपसम्भवः, समुदितावस्थायामप्यणनां * स्वरूपेण सूक्ष्मत्वात् / न च तद्व्यतिरिक्तः समुदायोऽस्ति, तथात्वे द्रव्यवादप्रसंगात् , तत्र चोक्तो दोषः / तन्न स्थूलता परमाणुषु कथंचिदपि सम्भवति / न चान्याहग निर्भासोऽन्यादृक्षस्यार्थस्य प्रकाशकः, नीलदर्शनस्यापि पोतव्यवस्थापकत्वापत्तेः, तथा च नियतविषयव्यवस्थोच्छेदः / किं च परमाणोरपि नानादिक्सम्बन्धादेकता नोपपन्नव / तथा चाह-'षटकेन युगपद्योगात परमाणोः षडंशता।'- [विज्ञप्ति० का० 12 ] इति / पुनस्तदंशानामपि नानादिक्सम्बन्धात् सांशताऽपत्तिः, तथा चानव.. स्था। तस्मान्न परमाणूनामपि सत्त्वम्-इत्यवयव्यग्रहणे सर्वाऽग्रहणप्रसंगः इति प्रतिभासामावापत्तेन प्रसंगसाधनस्यावकाशः।"-असदेतद् , - अवयव्यभावेऽपि निरन्तरोत्पन्नानां घटाद्याकारेण परमाणनां सद्भावात् तद्ग्राहकरणामपि ज्ञानपरमाणूनां तथोत्पन्नानां तद्ग्राहकत्वात् न बहिरर्थाभावः, नापि तत्प्रतिभासाभावः, इति कथं प्रसंग. [ अवयवी के विना स्थूलप्रतिभास अनुपपत्ति-पूर्वपक्ष ] पूर्वपक्षीः-अवयवी नहीं है तब तो उसके हस्त-पादादि अवयवों में भी देशभेदादिस्वरूप विरुद्धधर्माध्यास से भेद प्रसक्त होगा। उसी प्रकार हस्तादि के अवयव अंगुली-नखादि का भी भेद होगा, यावत् त्र्यणुक-द्वयणुक कोई भी अवयवी न होकर परमाणु ही शेष रहेंगे। परमाणुवों में स्थूलता के प्रतिभास की विषयता घट नहीं सकती / बाह्य लोक में स्थूलता को विषय करने वाले नीलादिस्वरूपग्राहक प्रतिभास का उदय तो स्पष्ट ही होता है / एक एक परमाणु में स्थूलता का तो सम्भव ही नहीं है, क्योंकि उसमें स्थूलता मानने पर तो वह 'परमाणु ही कैसे कहा जायेगा? अन्योन्य मिलित परमाणुवों में भी स्थूलता का सम्भव नहीं है क्योंकि समुदित अवस्था में भी उन अणुओं का स्वरूप तो सूक्ष्म यानी अणु ही रहता है, स्थूल नहीं। परमाणुसमूह से भिन्न तो कोई समुदाय माना नहीं जाता, यदि वैसे समुदाय को मानेंगे तब तो वहीं द्रव्यवाद यानी अवयवीवाद प्रसक्त होगा, जिसका खण्डन कर आये हैं। [ पृ० 414 पं. 5 ] / इस कारण, परमाणुवों में किसी भी रीति से स्थूलता का सम्भव नहीं है / किसी एक (स्थूलादि) प्रकार के प्रतिभास से अन्यप्रकार की वस्तु का प्रकाशन शक्य नहीं है, अन्यथा नील के अनुभव से पीत वस्तु की व्यवस्था होने लगेगी फिर तो 'ज्ञान से विषयों को नियत प्रकार की व्यवस्था' का ही उच्छेद हो जायेगा। दूसरी बात, जैसे अवयवी असंगत है वैसे परमाणु भी संगत नहीं होता, जैसेः परमाणु को भी भिन्न भिन्न दिशा का संपर्क रहता है अतः विरुद्ध दिशासंसर्ग के कारण परमाण में एकता नहीं घट सकेगी। जैसे कि विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि में कहा गया है- 'परमाणु एक साथ ही अन्य छ परमाणुओं से युक्त होता है, अत: उसके छ अंश सिद्ध होते हैं।' उपरांत, उन अंशों में भी पुन: अन्य अन्य दिशा के साथ संपर्क होने के कारण सांशता आपन्न होगी-इस प्रकार सांशता का कहीं अन्त ही नहीं आने से परमाणु भी असिद्ध रहेगा, उसकी सत्ता ही सिद्ध नहीं होगी। इस प्रकार विरुद्ध धर्माध्यास दिखाकर (अवयवी को न मानने पर) सभी वस्तु का अग्रहण प्रसक्त होगा, फिर प्रतिभास भी स्वयं असद् हो जायेगा तो प्रसंगसाधन को भी अवकाश नहीं रहेगा, तो उसके भेद से अवयवी की एकता का खंडन कैसे हो सकेगा? !