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________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 303 अथ प्रत्यक्षमेव सविकल्पकं परमार्थतः प्रतिपत्तः "ततः परं पुनर्वस्तु धर्मः'...... [ श्लो० वा० सू० 4-120 ] इत्यादि मीमांसकादिप्रसिद्ध साधकं वह्नि-बाह्यार्थपूर्वकत्वस्य धूम-जाग्रत्पुरोवृत्तिस्तम्भादिप्रत्ययस्य,-अत्राभ्युपगमे परलोकवादिनः स्वपक्षमनाय ससिद्धमेव मन्यन्ते, 'न हि दृष्टेऽनुपपन्नम् इतिन्यायात् / यथैव हि निश्चयरूपा मातापित-जन्मप्रतिबद्धत्वसिद्धिस्तथैवेहजन्मसंस्कारव्यावृत्तादिहजन्मप्रज्ञाद्याकारविशेषानिजजन्मान्तरप्रतिबद्धत्वसिद्धिरपि प्रत्यक्षनिश्चिता स्यादिति न परलोकक्षतिः। न च निश्चयप्रत्ययोऽनभ्यासदशायामनुमानतामतिकामति, 'पूर्वरूपसाधात् तत् तथा प्रसाधित नानुमयतामतिपतति' इति न्यायादन्वय-व्यतिरेक पक्षधर्मताऽनुसरणस्यानभ्यासदशायामुपलब्धः, अभ्यासदशायां च पक्षधर्मत्वाद्यनुसरणस्यान्यत्राप्यसंवेदनात् सिद्धमनुमानप्रतीतत्वं परलोकस्य / परलोकवादी:-अरे ! ऐसे तो जिस प्रदेश में धूम उत्पन्न हुआ है और जिस समनन्तर [-सजातीय पूर्ववर्ती ] प्रत्यय से प्रत्यक्ष संवेदन की उत्पत्ति हयी है उस प्रदेश और समनन्तर प्रत्यय को ही क्रमशः धूम और प्रत्यक्ष संवेदन की सामग्री समझ लेने से धूम और प्रत्यक्षसंवेदन में कादाचित्कत्व की घटना हो जायेगी, तो अग्नि और बाह्यार्थ की प्रतीति कैसे सिद्ध होगी? इस प्रकार अग्नि एवं सकल बाह्यार्थ सिद्ध न होने पर तत्साध्य कोई व्यवहार भी न हो सकेगा। तात्पर्य यह है कि जैसे केवल प्रदेश और समनन्तरप्रत्यय ही सामग्री नहीं है किन्तु अग्नि आदि भी सामग्री है, उसी प्रकार केवल माता-पिता ही सामग्री नहीं है किन्तु जन्मान्तर भी सामग्री अन्तर्गत है / नास्तिकः-धूम में जो विशेषाकार है उष्णत्वादि और प्रत्यक्षसंवेदन में जो विशेषाकार है नीलादि, यह विशेषाकार क्रमशः अग्नि और बाह्यार्थ के विना संभवित न होने से अग्नि और बाह्य अर्थ की सिद्धि हो सकेगी। परलोकवादीः-तो उसी प्रकार वर्तमानजन्म में जो प्रज्ञा मेधादि विशेषाकार है वह पूर्वजन्मान्तर के विना संभवित न होने से माता-पिता से अतिरिक्त अपने ही जन्मान्तर की सिद्धि निर्विवाद है / तदुपरांत, प्रत्यक्षसंवेदन का एक ऐसा आकार विशेष है जो तिमिररोगवाले के ज्ञान में नहीं होता, इस से यह निश्चय होता है कि 'तैमिरिकज्ञान भले विना बाह्यार्थ उत्पन्न हो जाता हो किन्तु यह प्रत्यक्षसंवेदन बाह्यार्थ के विना नहीं हो सकता' वरना, बाह्यार्थ सिद्ध न होने पर बौद्ध मत का विज्ञानाद्वैत ही सिद्ध होने से व्यवहाराभाव की पुन: प्रसक्ति होगी। तो प्रस्तुत में भी-इस जन्म का आदिभूत जो मात-पिता का प्रज्ञाविशेष था उससे इस जन्म के प्रज्ञाविशेष का आकार विलक्षण है इस लिये वह अपने पूर्वजन्मान्तर से जन्य यानी जन्मान्तरसम्बन्धी है यह निश्चय अनुमान से फलित हुआ, क्योंकि अल्पप्रज्ञ माता-पिता से भी अतिशयित बुद्धि वाली सन्तानोत्पत्ति देखी जाती है। [प्रज्ञादि आकारविशेष में जन्मान्तरप्रतिबद्धता का प्रत्यक्षनिश्चय ] नास्तिक:-मीमांसादर्शन के श्लोकवात्तिकग्रन्थ में जो सविकल्प प्रत्यक्ष प्रसिद्ध है कि-निर्विकल्पक ज्ञान के बाद तद्गृहीत वस्तु का जाति-नामादि धर्म से विशिष्टरूप में जिस बुद्धि से ग्रहण होता है वह सविकल्पक प्रत्यक्ष भी प्रमाण रूप से सम्मत है / [पूरा श्लोक इस प्रकार है-तत: परं पुनर्वस्तु धर्मर्जात्यादिभिर्यया / बुद्धयाऽवसीयते सापि प्रत्यक्षत्वेन सम्मता! / ] बोधकर्ता का यह सविकल्प प्रत्यक्ष ही परमार्थ से धूम में अग्निपूर्वकत्व का साधक है और जागने पर जो सामने रहे हुए स्तम्भादि की
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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