________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथेतरेतराश्रयदोषावनुमानं नास्त्येवैवं विधे विषय इत्युच्येत, नन्वेवं सति सर्वभेदाभावतो व्यवहारोच्छेद इति तदुच्छेदमनभ्युपगच्छता व्यवहाराथिनाऽवश्यमनुमानमभ्युपगन्तव्यम् / एतेन प्रत्यक्षपूर्वकत्वाऽभावेऽप्यनुमानस्य प्रामाण्यं प्रतिपादितम् / न चानुमानपूर्वकत्वेऽपोतरेतराश्रयदोषानुषंगः, तस्यैवेतरेतराश्रयदोषस्य व्यवहारप्रवृत्तितो निराकरणात् / बुद्धि होती है उसमें बाह्यार्थपूर्वकत्व का साधक है। [ तात्पर्य-वर्तमान जन्म में जन्मान्तरपूर्वकत्व का साधक ऐसा प्रत्यक्ष नहीं होने से वह असिद्ध है / ] ___ आस्तिक:-प्रत्यक्ष से धूमादि में अग्निपूर्वकत्व की सिद्धि मान ली जाय तब तो परलोकवादीवृद विना आयास ही अपने पक्ष की सिद्धि मान सकते हैं क्योंकि जो स्पष्ट दिखाई रहा हो-उसके ऊपर कोई अनुपपत्ति का विकल्प शेष नहीं रहता। जैसे ही इस जन्म में माता-पितृप्रतिबद्धत्व की प्रत्यक्ष से सिद्धि निश्चयात्मक होती है संदहेरूप नहीं, उसी प्रकार, इस वत्तमान जन्म के सभी संस्कार से नितान्त विलक्षण ऐसा जो वर्तमानभवीय प्रज्ञा-मेधादि आकारविशेष है उस के प्रत्यक्ष से ही [ अभ्यास दशा में ] अपने जन्मान्तर संबंधिता की सिद्धि का प्रत्यक्षात्मक निश्चय संभवित है अतः परलोक की सिद्धि में कोई त्रुटि नहीं है / इतना जरूर है कि यह निश्चयात्मक बोध अनभ्यास दशा में अनुमानबहिभूत नहीं होता / कारण यह है कि 'पूर्वदृष्टस्वरूप के साधर्म्य से [ अन्यत्र भी ] उसी प्रकार वह सिद्ध किया जाय तो वह अनुमेय [ अनुमान के विषय क्षेत्र से ] बहिर्भूत नहीं होता' इस न्याय से अनभ्यास दशा में अन्वय, व्यतिरेक, पक्षधर्मता का अनसरण देखा जाता है अत: परलोक को अनुमान का विषय दिखाया जाता है। तात्पर्य यह है कि अभ्यासदशा में जिसका अनमान किया जाता है वही वस्तु अभ्यास दशा में प्रत्यक्ष का विषय बन जाती है क्योंकि अभ्यस्तदशा में अन्यत्र अग्निज्ञान में भी कभी पक्षधर्मता आदि के अनसरण का संवेदन नहीं होता / उदा० प्रारम्भ में अग्नि के अनमान में मंदबुद्धि पुरुष को पक्षधर्मता आदि का अनुसंधान करना पडता है किंतु इस विषय का बार बार पुनरावर्तन हो जाने पर धूम को देखकर सत्वर ही अग्नि का ज्ञान हो जाता है यहाँ व्याप्ति स्मरणादि की जरूर नहीं रहती अत: यह ज्ञान अनमान नहीं किन्तु प्रत्यक्षरूप ही होता है। केवल अनभ्यास दशा में वह ज्ञान अनुमानात्मक होता है इस दृष्टि से परलोक अनुमान ज्ञान के विषयरूप में भी सिद्ध होता है / [ परलोक साधक अनुमान में इतरेतराश्रयदोष का निवारण ] यदि यह कहा जाय कि -"आपने जो परलोक सिद्धि में अनुमान दिखाया है, वह प्रत्यक्ष पर अवलम्बित है क्योंकि प्रत्यक्ष से जन्मान्तरप्रतिबद्धत्व का निश्चय करने पर ही अनुमान का उदय लब्धावकाश होगा / वह प्रत्यक्ष भी अनुमान पर अवलम्बित है क्योंकि अनुमान के विना उसका प्रामाण्य असिद्ध रहेगा। इस प्रकार अन्योन्य परावलंबी हो जाने से परलोक के विषय में अनुमान की प्रवृत्ति नहीं मान सकते हैं - तो यहाँ व्यवहारोच्छेद का प्रसंग होगा क्योंकि परलोकवत् सभी भेदों का [ यानी विशेषपदार्थों का ] प्रत्यक्ष और अनुमान पूर्वोक्त रीति से अन्योन्य परावलंबी होने से उनका अभाव ही सिद्ध होगा और तब उन पदार्थों के विषय में कोई भी व्यवहार नहीं किया जा सकेगा। व्यवहारोच्छेद न मान कर यदि आपको व्यवहार से प्रयोजन है तब अनमान का स्वीकार अवश्यमेव करना होगा। व्यवहारोच्छेद की आपत्ति दिखाने से यह भी ध्वनित हो जाता है कि अनुमान में कदाचित् प्रत्यक्षपूर्वकता न हो फिर भी उसे प्रमाण मानना चाहीये / तात्पर्य यह है कि सामान्यतोदृष्ट अनुमान