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________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः 216 सर्वज्ञो नावबुद्धश्चेद् येनैव स्यान्न तं प्रति / तद्वाक्यानां प्रमाणत्वं मूलाज्ञानेऽन्यवाक्यवत् // तदेवं सर्वज्ञसद्भावग्राहकस्य प्रमाणस्याभावात् तत्सद्भावबाधकस्य चानेकधा प्रतिपादितत्वात् सर्वज्ञाभावव्यवहारः प्रवर्त्तयितु युक्तः / तथाहि-ये बाधकप्रमाणगोचरतामापन्नाः ते 'असद्' इति व्यवहर्तव्याः, यथा अंगुल्यने करियूथादयः, बाधकप्रमाणगोचरापन्नश्च भवदभ्युपगमविषयः सकलपदार्थसार्थसाक्षात्कारीत्यसद्व्यवहारविषयत्वं सर्वविदोश्युपगन्तव्यम् / // इति पूर्वपक्षः // “सर्वज्ञगृहीत पदार्थों के ज्ञान के अभाव में सर्वज्ञ हयात होने पर भी 'यह सर्वज्ञ है या नहीं' ऐसो जिज्ञासा वालों को कैसे यह पता चलेगा कि 'यह सर्वज्ञ है' ? (यदि इसके लिये दूसरा सर्वज्ञ माना जाय तो उस सर्वज्ञ को भी जानने के लिये दूसरे सर्वज्ञ की आवश्यकता होने पर) आपको अनेक सर्वज्ञ की कल्पना करनी होगी / क्योंकि जो स्वयं सर्वज्ञ नहीं है वह दूसरे सर्वज्ञ को नहीं जान सकता।" . सर्वज्ञ अज्ञात होने पर उसके द्वारा रचित होने के कारण उसके आगम को प्रमाण मानना शक्य नहीं है / आगम प्रामाण्य अज्ञात रहने पर उस आगम से विहित अनुष्ठान में प्रवृत्ति करना भी असंगत है / जैसा कि कहा है - "जिस को सर्वज्ञ अज्ञात है उसके वाक्यों का प्रामाण्य भी नहीं हो सकता क्योंकि उन वाक्यों का मूल ही अज्ञात है, जैसे कि अन्य साधारण मनुष्य का वाक्य / " [सर्वज्ञ 'असद्' रूप से व्यवहारयोग्य-पूर्वपक्ष पूर्ण ] पूर्वपक्ष के उपसंहार में सर्वज्ञविरोधी कहता है कि जब उपरोक्त रीति से सर्वज्ञ के सद्भाव का ग्राहक कोई प्रमाण ही नहीं है और हमने सर्वज्ञ के सद्भाव के विरोधी अनेक यक्तियां दिखाई हैं तो अब सर्वज्ञ के अभाव का व्यवहार का प्रवर्तन करना उचित ही होगा। जैसे-जिनमें बाधक प्रमाण की विषयता प्राप्त है वे 'असद्' रूप से व्यवहार के लिये उचित हैं, जैसे अंगुलि के अग्रभाग में हस्तीवृदादि / आपकी मान्यता का विषयभूत सर्वपदार्थसाक्षात्कारी सर्वज्ञ भी बाधकप्रमाणविषयताप्राप्त ही है अतः सर्वज्ञ 'असद्' रूप से व्यवहार करने लायक है यह आप को अवश्य मानना होगा। सर्वज्ञविरोधी पूर्वपक्ष समाप्त / [ सिंहावलोकन:-सर्वज्ञविरोधी पूर्वपक्ष में सर्वज्ञ प्रमाणविषय न होने से असद्व्यवहारोचित होने का प्रतिपादन किया, तदनंतर सर्वज्ञवादी की ओर से यह विस्तृत आशंका पेश की गयी कि सर्वज्ञाभाव में प्रमाण न होने से असद्व्यवहार की प्रवृत्ति अनुचित है। इसके उत्तर में सर्वज्ञविरोधी ने प्रसगसाधन का अभिप्राय प्रस्तुत करके अपना समर्थन किया। तदनंतर, पूर्वोक्त आशका में जो वक्तृत्वहेतुक सर्वज्ञताभावसाधक अनुमान का खंडन किया गया था उसके प्रतिखंडन में धूमहेतुक अग्नि अनुमान के उच्छेद की विभीषिका विस्तार से प्रस्तुत की गयी / तदनन्तर सर्वज्ञप्रत्यक्ष की धर्मादिग्राहकता का चार विकल्प से खंडन किया गया। तदनन्तर सर्वज्ञ की सर्ववेदनता का तीन विकल्प से खंडन किया गया। उसके बाद अवशिष्ट शंकाओं का उत्थान समाधान करके पू - iarयों का उ:शात समाधान करके पर्वपक्ष समाप्त किया गया है / अब उत्तर पक्ष में सर्वज्ञ की सिद्धि और बाधकों का निराकरण पढिये / ]
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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