SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 220 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 [ सर्वज्ञसद्भावावेदनम्-उत्तरपक्षः] अत्र प्रतिविधीयते-यत्तावदुक्तम् 'ये देशकालस्वभावव्यवहिताः प्रमाणविषयतामनापन्ना न ते सद्व्यवहारगोचरचारिणः' इत्यादि-तदयुक्तम , सर्वविदि प्रमाणविषयत्वस्य प्रतिपादयिष्यमाणत्वाद् असिद्धो हेतुस्तदविषयत्वलक्षणः / यदप्यभ्यधायि-'न तावदक्षसंभवज्ञानसंवेद्यस्तद्धावः, प्रक्षाणां तविषयत्वेन तत्साक्षात्करणच्यापाराऽसम्भवात' तत सिद्धमेव साधितम। यदप्युक्तम्-'नाप्यनुमानस्य तत्र व्यापारः, तद्धि प्रतिबन्धग्रहणे पक्षधर्मताग्रहणे च हेतोः प्रवर्तते; न च प्रतिबन्धग्रहणं प्रत्यक्षतस्तत्र संभवति' इत्यादि....तद् धूमादेरग्न्यादिप्रभवत्वानुमानेऽपि समानम् / अथान्यादेः प्रत्यक्षत्वात् तत एव तत्प्रभवत्व-कार्यविशेषत्वयोधू मादौ प्रतिबन्धसिद्धिः / ननु धूमस्य किमग्निस्वरूपग्राहकप्रत्यक्षेण पावकपूर्वकत्वमवगम्यते, उत धूमस्वभावग्राहिणेति कल्पनाद्वयम् / ___ तत्र न तावदाद्यः पक्षः, पावकरूपग्राहि प्रत्यक्षं तत्स्वभावमात्रग्रहणपर्यवसितमेव न धूमरूपप्रवेदनप्रवणम् , तदप्रवेदने च न तदपेक्षया तेन वह्नः कारणत्वावगमः; न हि प्रतियोगिस्वरूपाऽग्रहणे तं प्रति कस्यचित् कारणत्वमन्यद्वा धर्मान्तरं ग्रहीतु शक्यम् , अतिप्रसङ्गात् / अथ धूमस्वरूपप्रतिपत्तिमता प्रत्यक्षेण तस्य चित्रभानु प्रति कार्यत्वस्वभावं तत्प्रभवत्वं गृह्यते / ननु तस्यापि पावकस्वरूपग्राहकत्वेनाऽप्रवृत्तेस्तदग्रहणे तदपेक्षं कार्यत्वं धूमस्य कथमवगमविषयः ? अथाग्नि-धूमद्वयस्वरूपग्राहिणा प्रत्यक्षेण तयोः कार्यकारणभावनिश्चयः / तदप्यसंगतम्-द्वयग्राहिण्यपि ज्ञाने तयोः स्वरूपमेव भाति न पुनरग्ने— मं प्रति कारणत्वम् धूमस्य वा तं प्रति कार्यत्वम् / न हि पदार्थद्वयस्य स्वस्वरूपनिष्ठस्यैक. ज्ञानप्रतिभासमात्रेण कार्यकारणभावप्रतिभासः, अन्यथा घट-पटयोरपि स्वस्वरूपनिष्ठयोरेकज्ञानप्रतिभासः क्वचिदस्तीति तयोरपि कार्यकारणभावावगमप्रसङ्गः / [ सर्वज्ञसत्तासिद्धि निर्बाध है-उत्तरपक्षप्रारम्भ / अब सर्वज्ञविरोधी युक्तिओं का प्रतिकार किया जाता है-पूर्वपक्षी ने जो यह कहा था कि देश काल और स्वभाव से विप्रकृष्ट होते हुये जो प्रमाण के विषय नहीं होतें वे सद्व्यवहारविषयोचित नहीं होते-इत्यादि....वह युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि 'सर्वज्ञ प्रमाण का विषय है' यह आगे दिखाया जायेगा, अतः पूर्वपक्षी का प्रमाणाऽविषयत्व हेत प्रसिद्ध है। यह भी जो कहा था 'सर्वज्ञ का सद्भाव इन्द्रियजन्यज्ञानसंवेद्य नहीं है क्योंकि इन्द्रियों की विषयमर्यादा संकुचित होने से सर्वज्ञ को साक्षात् करने में उसकी गुजाईश नहीं है' वह तो इष्ट होने से सिद्धसाधन ही है / और भी जो कहा था 'अनुमान भी सर्वज्ञ के विषय में निष्क्रिय है, हेतु-साध्य की व्याप्ति और हेतु की पक्षधर्मता का ग्रहण होने पर अनुमान की प्रवृत्ति संभव है, व्याप्ति का ग्रहण प्रत्यक्ष से संभव नहीं है' इत्यादि ...वह सब धूम के अग्निजन्यत्व के अनूमान में समानयुक्ति वाला है। यदि तक कर कि-'अग्नि आदि तो प्रत्यक्षांसद्ध होने से धूम में अग्निजन्यत्व अथवा विशिष्ट कार्यत्व का अविनाभाव सिद्ध कर सकते हैं'-तो इस पर दो कल्पना सावकाश हैं - 1 अग्निस्वरूप का ग्राहक प्रत्यक्ष ही धूम में अग्निपूर्वकत्व का बोधक है ? या २-धूमस्वभाव का ग्राहक प्रत्यक्ष धूमगत अग्निपूर्वकत्व का ग्राहक है ? [प्रसिद्ध अनुमान में व्याप्तिग्रह अशक्यता का समान दोष ] प्रथम पक्ष युक्त नहीं है-अग्निस्वरूप का ग्राहक प्रत्यक्ष तो अग्नि के स्वभावमात्र के ग्रहण
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy