________________ प्रथमखण्ड-का० 1 अपौरुषेयविमर्शः 135 अथ पर्युदासरूपमपौरुषेयत्वम् / किं तत् पौरुषेयत्वादन्यत् सत्त्वम् ? तस्यास्माभिरप्यभ्युपगमात् / नाऽनादिसत्त्वम् , तद्ग्राहकप्रमाणाभावात् / तथाहि-न तावत् तद्ग्राहक प्रत्यक्षम् , अक्षानुसारितया तथाव्यपदेशात् , अक्षाणां चानादिकालीनसंगत्यभावेन तत्सम्बद्धतत्सत्त्वेनाऽप्यसम्बन्धाद् न तत्पूर्वकप्रत्यक्षस्य तथा प्रवृत्तिः / प्रवृत्तौ वा तद्वद् अनागतकालसम्बद्धधर्मस्वरूपग्राहकत्वेनापि प्रवृत्तेन धर्मज्ञनिषेधः / तथा, "सत्संप्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां बुद्धिजन्म तत् प्रत्यक्षमनिमित्तम , विद्यमानोपलम्भनत्वात्" [जैमि०सू०१-१-४] इति सूत्रम्, “भविष्यति न दृष्टं च, प्रत्यक्षस्य मनागपि। साम्थ्य".... [ श्लो० वा० स०२ श्लो० 115 ] इति च वात्तिकं व्याहतं स्यादिति न प्रत्यक्षात तत्सिद्धिः / उत्तरपक्षी:-यहाँ भी बताईये कि (1) अनादिसत्त्व ज्ञात होकर अभावज्ञानोत्थापक होगा ? या (2) अज्ञात रह कर भी? [1] ज्ञात रह कर अभावज्ञानोत्थापक नहीं हो सकता / कारण, वेद के अनादिसत्त्व का ज्ञान होना ही असम्भव है। प्रत्यक्षादि कोई प्रमाण उसके ज्ञापकरूप में प्रवत्त नहीं है और यदि कदाचित् प्रत्यक्षादि की प्रवृत्ति हो तब अभाव प्रमाण ही निरर्थक हो जायगा क्योंकि उससे ही पुरुष का अभाव अनुमान से सिद्ध हो जायेगा, वेद में अनादिसत्त्व यह वेदकर्तृ पुरुषाभावज्ञान रूप साध्य का नान्तरीयक यानी अविनाभावी हेतु है, इसलिये हेतु से साध्यसिद्धि दुष्कर नहीं है / [2] अज्ञात अनादि सत्त्व अभावप्रमाणजनक नहीं हो सकता, क्योंकि जिन लोगों को समय का यानी 'वेद अनादि है' इस प्रकार के पारस्परिक संकेत का ज्ञान नहीं है उन सब को भी वेद में पुरुषाभावज्ञानकी उत्पत्ति हो जायगी। कारण, वादी को जैसे प्रत्त्यासत्ति का विप्रकर्ष यानी संनिकर्ष का अभाव नहीं है वैसे सभी को भी नहीं है / अर्थात् वादी को जैसे वेद का अनादि सत्त्व अज्ञात है वैसे सभी को अज्ञात है। सारांश, अनादिसत्त्व किसी भी प्रकार अभावज्ञानोत्थापक न होने से अभावप्रमाण से वेदकर्ता , पुरुष का अभाव सिद्ध नहीं हो सकता। अभावप्रमाण यह कोई वास्तव में प्रमाण भी नहीं है क्योंकि पहले उसके प्रामाण्य का खंडन किया गया है, एवं आगे भी किया जायेगा। [ प्रसज्यप्रतिषेध रूप अपौरुषेयत्व का A विकल्प समाप्त ] __[B] प्रसज्यप्रतिषेध विकल्प का त्याग कर यदि दूसरा विकल्प-अपौरुषेयत्व में पर्यु दास प्रतिषेध है-यह स्वीकार लिया जाय तो उस पर प्रश्न है-वह क्या पौरुषेयत्व से अन्य सत्त्व रूप है ? ऐसा अपौरुषेयत्व तो हम भी मानते हैं किन्तु इससे वेदप्रणेता का अभाव कैसे सिद्ध होगा? 'अपौरुषेयत्व अनादिसत्त्वरूप है ऐसा पर्युदास नहीं मान सकते क्योंकि इस प्रकार के अपौरुषेयत्व का यानी वेद में अनादिसत्त्व का ग्राहक कोई प्रमाण नहीं है। वह इस प्रकार-प्रत्यक्ष तो उसका ग्राहक नहीं है, क्योंकि जो इन्द्रिय यानी अक्ष का अनुसरण करे उसकी प्रत्यक्ष संज्ञा की जाती है / इन्द्रिय का अनादिकाल के साथ सम्बन्ध न होने पर अनादिकाल से सम्बद्ध वेदसत्त्व के साथ भी सम्बन्ध न घटने से इन्द्रिया नुसारी प्रत्यक्ष की वहां प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी। यदि अतीतकाल में प्रवृत्ति शक्य हो तो फिर भविष्य काल से सम्बद्ध धर्म के स्वरूप को ग्रहण करने में भी उसकी प्रवृत्ति शक्य है-तो फिर आप धर्मज्ञ का निषेध नहीं कर सकेंगे / आशय यह है कि मीमांसक धर्मतत्त्व का ज्ञान केवल वेद के विधिवाक्य से ही जन्य मानते हैं / कारणभूत-भविष्यकालीन धर्मतत्त्व के साथ इन्द्रिय सम्बन्ध न होने से धर्म का कोई प्रत्यक्ष ज्ञाता [ =धर्मज्ञ ] नहीं हो सकता। जैसे कि जैमिनी सूत्र में कहा है [ सत्सम्प्रयोगे....इत्यादि ]-"इन्द्रियों का सद् विषय के साथ संबंध होने पर जिस बुद्धि का जन्म होता है वह प्रत्यक्ष है / यह धर्मज्ञान में निमित्त नहीं हो सकता क्योंकि विद्यमान वर्तमान वस्तु का ही