________________ 134 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 ऽभावज्ञानाभावाद् गतिः / नापि प्रतिवादिनोऽभावज्ञानाभावात् तत्र तद्गतिः, वेदेऽपि तत्प्रसंगाद् / अत एव न सर्वस्याभावज्ञानाभावात / प्रसिद्धश्च सर्वस्याभावज्ञानाभावः, तन्नात्मा प्रमाणपंचकविनिमुक्तोऽभावज्ञानजनकः। अथ वेदानादिसत्त्वमभावज्ञानोत्थापकम् / नन्वत्रापि वक्तव्यम्-ज्ञातमज्ञातं वा तत् तदुत्थापकम् / न ज्ञातम् , तज्ज्ञानाऽसम्भवात् , प्रत्यक्षादेस्तज्ज्ञापकत्वेनाप्रवृत्तः, प्रवृत्तौ वा तत एव पुरुषाभावसिद्धेरभावप्रमाणवैयर्थ्यम, अनादिसत्त्वसिद्धेः पुरुषाभावज्ञाननान्तरीयकत्वात् / नाप्यज्ञातं तत् तदुत्थापकम् , अगृहीतसमयस्यापि तत्र तदुत्पत्तिप्रसंगात् केनचित् प्रत्यासत्ति-विप्रकर्षाभावात् / तन्न अनादिसत्त्वमपि तदुत्थापकमिति नाभावप्रमाणात् पुरुषाभावसिद्धिः / न चाभावप्रमाणस्य प्रामाण्यम् , प्राक् प्रतिषिद्धत्वात् प्रतिषेत्स्यमानत्वाच्च। बौद्धादि आगम में प्रमेयाभाव का निषेध यानी प्रमेय को माना जाय तो उसी प्रकार, प्रतिवादि को स्वागम से भिन्न वेदागम में अभावज्ञान का अभाव होने से वेद में भी प्रमेयाभाव नहीं होगा अर्थात् रचयिता पुरुषात्मक प्रमेय का निषेध नहीं होगा। क्योंकि वेद में प्रतिवादि को जो अभावज्ञानाभाव है वह अन्य आगम में जैसा वादी को है वैसा ही है, कोई अन्तर उसमें नहीं है। अपौरुषेयवादीः-अन्य बौद्धादि आगम में हमें वादी को और प्रतिवादी को, दोनों को रचयिता पुरुष के अभाव का ज्ञान नहीं है, इसलिये उसमें प्रमेयाभाव नहीं है, अर्थात प्रमेय-पुरुष का सद्भाव मान सकते हैं / किन्तु वेद में ऐसा नहीं है, यहाँ प्रतिवादी को अभावज्ञान का अभाव होने पर भी हमें वादी को अभावज्ञान है ही / यही दोनों में विशेष अन्तर है। उत्तरपक्षी:-यह कोई तात्त्विक अन्तर नहीं है क्योंकि वादी को जो वेद में अभावज्ञान है वह अभाव के बल से यानी वास्तव में अभाव है इस हेतु से नहीं हुआ है किन्तु सांकेतिक है, यानी वादी को अपनी परम्परा भक्ति से यह वासना बन गयी है कि वेद में रचियता पुरुष का अभाव है। जैसे कि-अन्य बौद्धादि आगम में प्रतिवादीको अप्रामाण्य के अभाव का ज्ञान अपनी पारंपरिकवासना से रहता है / इस प्रकार के सांकेतिक अभावज्ञान से वस्तु का अभाव कभी सिद्ध नहीं होता, अन्यथा प्रतिवादी के आगम में भी प्रतिवादी के अप्रामाण्याभावज्ञान से अप्रामाण्याभाव यानी प्रामाण्य सिद्ध होगा / निष्कर्ष, वादी के अभावज्ञानाभाव से प्रमेयाभावाभाव का बोध शक्य नहीं है / [2] प्रतिवादी के अभावज्ञानाभाव से भी आगम में प्रमेयाभावाभाव का बोध नहीं माना जा सकता, क्योंकि प्रतिवादी को वेद में अभावज्ञान न होने से वेद में भी प्रमेयाभावाभाव यानी प्रमेय रचयिता पुरुष के सद्भाव की आपत्ति होगी [3] जब वादी-प्रतिवादी के अभावज्ञानाभाव से प्रमेयाभावाभाव की सिद्धि नहीं मानी जा सकती तो सभी के अभावज्ञानाभाव से प्रमेयाभावाभाव की सिद्धि होने की संभावना ही नहीं है / दूसरी बात यह है कि सर्वसंबन्धी अभावज्ञानाभाव हो भी नहीं सकता / सारांश, प्रमाणपंचकरहित आत्मा वेद में पुरुषाभावज्ञान का जनक नहीं बन सकता। [अनादि वेदसत्व अभावज्ञान प्रयोजक नहीं है ] अपौरुषेयवादी:-'वेद की सत्ता अनादिकालीन है' यही वेदरचयिता पुरुष के अभावज्ञान का उत्थापक मान लो।