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________________ प्रथमखण्ड-का० १.सर्वज्ञवाद: 183 किंच, सर्वज्ञसत्तायां साध्यायां त्रयों दोषजाति हेतु तिवर्तते--असिद्ध-विरुद्धा-नैकान्तिकलक्षणाम् / तथाहि-सकलज्ञसत्त्वे साध्ये किं भावधर्मो हेतुः, उताभावधर्मः, पाहोस्विदुभयधर्मः ? तत्र यदि भावधर्मस्तदाऽसिद्धः। अथाभावधर्मस्तदा विरुद्धः, भावे साध्येऽभावधर्मस्याऽभावाऽव्यभिचारित्वेन विरुद्धत्वात् / अथोभयधर्मस्तदोभयव्यभिचारित्वेन सत्तासाधनेऽनैकान्तिकत्वमिति न सकलज्ञसत्त्वसाधने कश्चित् सम्यग् हेतुः सम्भवति / ___' अपि च यद्यनियतः कश्चित् सकलपदार्थज्ञः साध्योऽभिप्रेतस्तदा तत्कृतप्रतिनियतागमाश्रयणं नोपपन्नं भवताम् / अथ प्रतिनियत एक एवाहन सर्वज्ञोऽभ्युपगम्यते तदा तत्साधने प्रयुक्तस्य हेतोरपरसर्वज्ञस्याभावेन दृष्टान्तानुवृत्त्यसंभवादसाधारणानकान्तिकत्वादसाधकत्वम् / किंच, यत एव हेतोः प्रतिनियतोऽर्हन सर्वज्ञस्तत एव बद्धोऽपि स स्यादिति कुतः प्रतिनियतसर्वज्ञप्रणीतागमाश्रयणमुपपत्तिमत् ? ! इति न कश्चित् सर्वज्ञसाधको हेतुः / अथ सर्वे पदार्थाः कस्यचित्प्रत्यक्षाः प्रमेयत्वात् , अग्न्यादिवदिति तत्साधनहेतुसद्भावः / तदसत्यतोऽत्र कि सकलपदार्थसाक्षात्कार / सकलपदार्थसाक्षात्कार्यकज्ञानप्रत्यक्षत्वं सर्वपदार्थानां साध्यत्वेनाऽऽभिप्रेतम, आहोस्वित प्रतिनियत विषयानेकज्ञानप्रत्यक्षत्वमिति कल्पनाद्वयम् / यद्याद्यः पक्षः, स न युक्तः, प्रतिनियतरूपादि [सर्वज्ञ सिद्धि में असिद्ध-विरुद्ध-अनैकान्तिक दोषत्रयी ] यह भी ज्ञातव्य है-सर्वज्ञ की सत्ता को सिद्ध करने में हेतु तीन दोषजाति का उल्लंघन नहीं कर सकेंगा। १-असिद्धि, २-विरोध, ३-व्यभिचार / वह इस प्रकार-सर्वज्ञसत्तारूप साध्य के ऊपर तीन प्रकार का हेतु संभवित है-A-भावधर्मरूप, B-अभावधर्मरूप, C-उभयधर्मरूप। ये तीनों नहीं घट सकते हैं, जैसे सर्वज्ञ सत्ता को सिद्ध करने वाला भावधर्मस्वरूप कोई हेतु प्रसिद्ध नहीं है इसलिये वह असिद्ध हुआ / अभावधर्मरूप हेतु विरोधी होगा क्योंकि यहाँ साध्य भावात्मक है जब कि हेतु अभावधर्म हर हमेश अभाव का ही अविनाभावी होता है भाव का नहीं, बल्कि भाव का तो वह सदात्यागी ही होगा अतः अभावधर्मरूप हेतु विरुद्ध हो गया। यदि भावाभावउभयधर्मस्वरूप हेतु की आशंका की जाय तो यहाँ व्यभिचार दोष लगेगा क्योंकि साध्य भावात्मक है जो भाव में ही रहेगा और हेतु तो उभय धर्मरूप होने से भाव और अभाव उभयत्र रहेगा अतः साध्याभाववाले में भी रह गया। अतः यह निष्कर्ष मानना होगा कि सर्वज्ञ की सत्ता को सिद्ध करने वाला कोई वास्तविक निर्दोष हेतु नहीं है / . यह भी विचारणीय है कि आप अनियतरूप से बुद्ध महावीर भगवान आदि किसी भी एक सर्वज्ञ को सिद्ध करना चाहते हैं तो वैसे सर्वज्ञ से रचित प्रतिनियत यानी केवल जैन आगमों का हो आशरा लेना आपके लिये शोभास्पद नहीं है, आपको बृद्धादिप्रणीत आगम भी मान्य करना चाहिये / यदि प्रतिनियत ही एकमात्र अरिहंत देव का सर्वज्ञरूप में स्वीकार करके उसको साध्य बनायेंगे तो वह अनुमान सर्वज्ञसत्ता का साधक नहीं हो सकेगा, क्योंकि आपके माने हुए सर्वज्ञ से अन्य तो ऐसा कोई सर्वज्ञ है नहीं जिसको दृष्टान्त बनाकर हेतु की अनुवृत्ति यानी सपक्षवृत्तिता दिखा सके और हेतु जब सर्व सपक्ष व्यावृत्त होता है तो असाधारण-अनैकान्तिक दोष लगता है / दूसरी बात यह है कि जिस हेतु से आप अरिहंतदेव को सर्वज्ञ सिद्ध करेंगे, उसी हेतु से बुद्ध भी सर्वज्ञ सिद्ध हो सकते हैं जो आपको इष्ट नहीं है तो किसी नियत ही महावीरस्वामी आदि विरचित-प्रतिपादित आगमशास्त्र का आशरा लेना युक्तियुक्त नहीं है / कथन का तात्पर्य यह है कि सर्वज्ञसत्त्व का साधक कोई भी हेतु नहीं है /
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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