________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवाद: 253 योगस्यैव नोत्कर्षनिष्ठाऽऽपादयितु शक्या, तदुपयोगेऽपि श्लेष्मपुष्टिकारणानामपि तदैवाऽऽसेवनात् , अन्यथौषधोपयोगाधारस्यैव विनाशः स्यात् / चिकित्साशास्त्रस्य च धातुदोषसाम्यापादनाभिप्रायेणैव प्रवृत्तेस्तत्प्रतिपादितौषधोपयोगस्योद्रिक्तधातुदोषसाम्यविधाने एवं व्यापारो न पुनस्तस्य निमूलने, अन्यथा दोषान्तरस्यात्यन्तक्षये मरणावाप्तेरिति न श्लेष्मणा तथाभूतेनानैकान्तिको हेतुः। .. न च सम्यग्ज्ञानसात्मीभावेऽपि पुनमिथ्याज्ञानस्यापि संभवो भविष्यति तदुत्कर्ष इव सम्यगज्ञानस्येति वक्तुयुक्तम् , यतो मिथ्याज्ञाने रागादौ वा दोषदर्शनात , तद्विपक्षे च सम्यग्ज्ञान-वैराग्यलक्षणे गुणदर्शनात् तत्र पुनरभ्यासप्रवृत्तिसंभवात् प्रकृष्टेऽपि मिथ्याज्ञान-रागादावुत्पद्येते एव सम्यग्ज्ञानवैराग्ये, नैवं तयोः प्रकर्षावस्थायां दोषदर्शनं तत्र तद्विपर्यये वा गुणदर्शनं येन पुनस्तत्सात्मीभावेऽपि मिथ्याज्ञानरागादेरुत्पत्तिः संभाव्येत। . उत्पन्न हो सकता है। यदि संस्कारवाली बात न मानी जाय तो सारे जगत् में जो शास्त्रों के पुनरावर्तन का श्रम दिखाई देता है वह निरर्थक मानना होगा। संस्कार के दृढीकरण द्वारा ही पुनरावर्तन सार्थक बनता है। [ कफधातु के उदाहरण से नियमभंगशंका का उत्तर ] हमने जो यह नियम व्यक्त किया है-'जिसके उपचय की तरतमता का अनुकरण जिसके अपचय का तरतमभाव करता है, उसका विपक्ष प्रकर्षावस्था को प्राप्त हो जाने पर वह अत्यन्त क्षीण हो जाता है'-इस नियम प्रयोग में कफधातु को प्रस्तुत करके इस प्रकार व्यभिचार का उद्भावन नहीं हो सकता कि-"निम्ब आदि औषध का सेवन करने वाला जब प्रकृष्ट मात्रा में उसका अनुभव यानी सेवन करता है तब कफधातु का तारतम्य अत्यन्त अपचित हो जाता है फिर भी कफधातु का सर्वथा विनाश नहीं होता है"-इस प्रकार के व्यभिचार को तब अवकाश मीलता यदि निम्ब आदि औषध के सेवन में उत्कर्षाधान शक्य होता, किन्तु वही अशक्य है। तात्पर्य, निम्बादि औषध का उत्कृष्टतम मात्रा में उपयोग ही असंभव है, कदाचित् अधिक मात्रा में उसका उपयोग कर लिया जाय तो भी दूसरी और कफपोषक खाद्य पदार्थों का आसेवन उसी काल में जारी रहता है, अतः कफ का आत्यन्तिक नाश नहीं होता है तो भी कोई दोष नहीं है। यदि कफपोषक खाद्यवस्तु का उपयोग न करके अकेला निम्बादि औषध का सेवन किया जायगा तो परिणाम में औषधोपयोग करने वाला आधारभूत प्राणी ही मर जायेगा। चिकित्साशास्त्रों का उपदेश धातुदोष के साम्यापादन के अभिप्राय से ही प्रवृत्त है / तात्पर्य यह है कि कफ-पित्त आदि धातु विषमावस्थापन्न होने पर विकार का उद्भव होता है उसका शमन करने के लिये तीनों धातु में साम्य स्थापित करने वाले औषधों के आसेवन की ओर चिकित्साशास्त्र निर्देश करता है। अत: चिकित्साशास्त्र उपदिष्ट औषधों का उपयोग, जिस धातुदोष का उद्रेक हुआ है उसको साम्यावस्था में लाने के लिये ही होता है, उस धातुदोष को निमूल करने के लिये नहीं होता है / अन्यथा किसी एक धातुदोष का यदि आत्यन्तिक विनाश कर दिया जाय तो प्राणी को मरण प्राप्त होगा। निष्कर्ष, कफधातु के उदाहरण से उपरोक्त नियम में हेतु अनैकान्तिक दिखाना अनुचित है। [मिथ्याज्ञान के क्षयानंतर पुनरुद्गम का असंभव ] - यदि यह कहा जाय मिथ्याज्ञान के उत्कर्ष में भी जैसे सम्यग्ज्ञान का उदयारम्भ होता है