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________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 347 ताप्रसक्तिः / तथा, समस्तसदसद्धर्मग्राहकेण सर्वविज्ज्ञानेन ज्ञानात्मा गात उत नेति ? यदि न गृह्यते तदा तस्य प्रमेयत्वे सति तेनैव प्रमेयत्वलक्षणो हेतुर्व्यभिचारी अप्रमेयत्वे तस्य भागाऽसिद्धो हेतुः / अथ सर्वज्ञज्ञानेन सर्वपदार्थग्राहिणाऽऽत्मापि गृह्यत इति नानकान्तिकः / नन्वेवं सति यथेश्वरज्ञानं ज्ञानत्वेऽप्यात्मानं स्वयं गृह्णाति. न च तत्र स्वात्मनि क्रियाविरोधः तथाऽस्मदादिज्ञानमप्येवं भविष्यतीति न कश्चिद विरोधः। किच एवमभ्यपगमे 'ज्ञानं ज्ञानान्तरग्राहाम . प्रमेयत्वात, घटवत' इत्यत्र प्रयोगे ईश्वरज्ञानस्य प्रमेयत्वे सत्यपि ज्ञानान्तरग्राह्यत्वाभावात् तेनैवानकान्तिकः 'प्रमेयत्वात्' इति हेतुः / तस्मात् ज्ञानस्य ज्ञानान्तरग्राह्यत्वेऽनेकदोषसम्भवात् स्वसंविदितं ज्ञानमभ्युपगन्तव्यम् / [वैशद्य प्रतिभासव्यवहार ज्ञानक्रमानुपलक्षणनिमित्त नहीं ] नैयायिक:-मान लो कि वहाँ विशदाकार प्रतिभास का व्यवहार विशदज्ञान प्रतिभास के निमित्त से ही होता है, किन्तु इतने मात्र से स्वय ज्ञान सिद्ध नहीं होता। कारण, नीलादिविषयक विशदज्ञान को हम उत्तरक्षणवर्ती अन्य एकार्थसमवेत ज्ञान (अनुव्यवसाय) का ग्राह्य मानते हैं, तो इस दूसरे ज्ञान से प्रथम ज्ञान गृहीत होने के कारण तन्मूलक विशदाकारव्यवहार भी सिद्ध हो जायेगा / यदि कहें कि-'नीलादि विषय और तद्विषक ज्ञान, दोनों का अवभास एक ही काल में होने का व्यवहार देखा जाता है तो इसका क्या कारण ?'-तो उत्तर यह है कि वस्तुतः दोनों का अवभास क्रमिक होने पर भी मन की चपलवृत्ति के कारण दूसरा ज्ञान शीघ्र ही पैदा हो जाने से कालक्रम वहां लक्षित नहीं हो सकता, जैसे कि सैंकड़ों कमलपत्रों की थप्पी लगा कर किसी नौकदार हथियार से उसका छेद किया जाय तो वहाँ हर एक पत्र का क्रमश: छेदन होते हये भी सभी पत्रों का छेदन एक साथ ही हो जाने का व्यवहार होता है, बोलनेवाला बोलता भी है कि 'मैंने एक ही प्रहार से एक साथ सभी को काट डाला। जैनः-यदि ऐसा मानेंगे तो पांचों अंगुली का भी एक साथ एक ज्ञान में प्रतिभास आप नहीं मान सकेंगे, क्योंकि वहां भी कह सकते हैं कि वास्तव में वहां पांचों अंगुली का क्रमिक अवभास होने परं भी शीघ्रोत्पत्ति के कारण ही क्रमिक प्रतिभास उपलक्षित नहीं होता इसीलिये एक ज्ञान का अवभास होता है / फलतः, आपने जो सर्वज्ञ की सिद्धि के लिये अनुमान प्रयोग किया है - 'सदसत् धर्म वाले सभी पदार्थ किसी व्यक्ति के एक ही प्रत्यक्ष ज्ञान के विषय हैं, क्योंकि प्रमेय हैं, जैसे कि (उदा०-) 'पांचों अंगुली' / तो इस अनुमान में दृष्टान्तभूत पांच अंगुली में एकप्रत्यक्षज्ञानविषयता उपरोक्त रीति से होने के कारण साध्य वैकल्यदोष का अनिष्ट प्राप्त होगा। [सर्वज्ञज्ञान में प्रमेयत्व हेतु व्यभिचारी होने की आपत्ति] ____ यह भी दिखाईये कि सकल सदसत् धर्मों के ग्राहक सर्वज्ञज्ञान से ज्ञान का स्वरूप गृहीत होता है या नहीं ? अगर गृहीत नहीं होता है तब तो एकज्ञान प्रत्यक्षतारूप साध्य का विपक्ष हो गया सर्वज्ञज्ञान और उसमें प्रमेयत्व हेतु रहता है तो हेतु व्यभिचारी बन जायेगा। यदि वहां प्रमेयत्व हेतु की वृत्तिता ही नहीं मानगे तो सदसत् धर्म वाले सभी पदार्थ रूप पक्ष का एक भाग जो सर्वज्ञज्ञान, उसमें हेतु की असिद्धि होने से भागासिद्धि दोष लगेगा। नयायिक:-सवज्ञ का ज्ञान तो सकलपदार्थग्राहक है अत: उससे अपना ज्ञानस्वरूप भी गृहीत
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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